ग़ज़ल
बीते दिन को याद करता हूं सिहर जाता हूं मैं,
कुछ कदम चलता हूं जाने क्यूं ठहर जाता हूं मैं।
हंसके पीता हूं ज़हर जो ज़िंदगी देती रही,
रोज़ जीता हूं यहां मैं, रोज़ मर जाता हूं मैं।
गर्दिशों की धूल है सूरत पे मेरी, तुम मगर,
आईना बनके जो आओ तो संवर जाता हूं मैं।
मां के रहते उस ख़ुदा की, है मुझे दरकार क्या,
छू मैं लेता हूं चरण उनके ओ तर जाता हूं मैं।
अब शिकन ‘जय’ पढ़ न लें चेहरे की मेरे इसलिए,
मुस्कुराते और हंसते रोज़ घर जाता हूं मैं।
— जयकृष्ण चांडक ‘जय’