ग़ज़ल
तेरी आंखों का आईना तलाश करती हूं
तू ना जाने मैं इन्हें देखकर संवरती हूं।
तू मेरी सांस में सुर बनके घुल गया जैसे
लम्हा लम्हा गीतों में अब मैं ढलती हूं।
तेरी चाहत मिली मुझे गुमा हुआ ऐसा
ऐसा लगता है के अब मैं हवा पे चलती हूं।
तेरी बाहों के किनारे मिले तो रुक जाऊं
मैं नदी हूं यूं लहरों की धुन में बहती हूं।
अब न पूछो हमारे इंतजार का आलम
जहां सो जाए और मैं शम्मा सी जलती हूं।
तू मेरे दिल में है ये इल्जाम मुझपे है जानिब
ये बता मैं तुम्हारे दिल से कब निकलती हूं।
— पावनी जानिब सीतापुर