लघुकथा

पीड़ा

”तुम तो अनगिनत बेटों-बेटियों की मां हो सृजनदायिनी सृष्टि, फिर उदास क्यों हो?”

”मैं तो अपनी बात बताऊंगी ही, पर तुम भी तो जन्मदायिनी मां होकर उदास हो, कारण जान सकती हूं?” धरिणी ने सवाल पर सवाल उछाला.

”मैं भले ही मां हूं, पर एक समय भाग्यवान पुकारते-पुकारते न थकने वाले मेरे पति मुझे अब अभागिनी और निपूती के संबोधन से संबोधित करते हैं. तीन बेटियों की मां जो हूं और पतिदेव मुझे न जाने कब मुझे बालकनी से नीचे फेंक दें, इस ख़ौफ़ की मारी मैं रोटी का एक निवाला तक नहीं निगल पा रही.” मां की पीड़ा मुखर हो गई थी.

”तुम्हारे पति भी मेरी संतानों की तरह ख़ौफ़नाक हैं! वे अवश्य जानते होंगे कि पुत्र के होने न होने के लिए केवल पुरुष ही जिम्मेदार है, क्योंकि ‘वाई क्रोमोज़ोम’ सिर्फ़ उन्हीं के पास होता है. नरों में एक वाई और एक एक्स गुण सूत्र होता है, जबकि मादाओं में दो एक्स गुण सूत्र होते हैं, जो नव सृजन के लिए उत्तरदाई हैं.” मां की पीड़ा से पीड़ित सृष्टि और अधिक उदास हो गई थी.

”तुम भी अपनी संतानों के कारण ख़ौफ़ज़दा हो?”

”बिलकुल. तुम तो जानती ही हो, पहले-पहल मुझ धरिणी पर पेड़ों की भरमार होती थी, अब पेड़ कटते जा रहे हैं, कंकरीट के जंगल उगते जा रहे हैं. मुझे धरिणी और धरा यानी धैर्य धारण करने वाली देवी कहकर मुझ पर पॉलिथीन का विषैला प्रसाद चढ़ाकर मेरे शरीर को खोखला किया जा रहा है. कहने को और भी बहुत कुछ है, लेकिन अपनी ही संतानों द्वारा दी गई अपनी पीड़ा मैं किससे साझा करूं, मुझे समझ ही नहीं आ रहा था. आज तुमने मेरी उदासी को पहचाना और मुझसे मेरा हाल पूछकर मेरे दुःख को सहलाकर तनिक हल्का कर दिया.”

”एक जननी की पीड़ा एक जननी ही समझ सकती है.” दोनों महसूस कर रही थीं.

*लीला तिवानी

लेखक/रचनाकार: लीला तिवानी। शिक्षा हिंदी में एम.ए., एम.एड.। कई वर्षों से हिंदी अध्यापन के पश्चात रिटायर्ड। दिल्ली राज्य स्तर पर तथा राष्ट्रीय स्तर पर दो शोधपत्र पुरस्कृत। हिंदी-सिंधी भाषा में पुस्तकें प्रकाशित। अनेक पत्र-पत्रिकाओं में नियमित रूप से रचनाएं प्रकाशित होती रहती हैं। लीला तिवानी 57, बैंक अपार्टमेंट्स, प्लॉट नं. 22, सैक्टर- 4 द्वारका, नई दिल्ली पिन कोड- 110078 मोबाइल- +91 98681 25244

One thought on “पीड़ा

  • लीला तिवानी

    धरनी पर प्रदूषण के लिए हम लोग खुद ही जिम्मेदार है. हमारा पर्यावरण निरंतर दूषित होता जा रहा है और हमें पीड़ित कर रहा है, पर हम सचेत नहीं होते. हमारे मनिद्र में एक महिला सभी के लिए कपड़े की थैली बनाकर लाई है, ताकि सभी लोग उसी में प्रसाद लेकर घर जाएं, न कि पॉलिथीन की विषैली थैली में. घरनी की पीड़ा के लिए भी हमें ही समझना होगा. घरेलू अत्याचार न करना होगा, न सहना होगा. अपनी शिक्षा को जीवन में उतारना होगा. एक-दूसरे की पीड़ा को समझकर दूर करना होगा.

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