कविता

दिलखुश जुगलबंदी- 20

बस आज में जीना है!

चाँद शरमा जाता था और
सितारे रंग बदलते थे
मयखाने जाने से पहले ही
कदम बहक-बहक जाते थे
फोन के रिश्ते भी अजीब होते हैं,
बेलैंस रखकर भी लोग गरीब होते हैं,
खुद तो मेसेज करते नहीं,
मुफ्त के मेसेज पढ़ने के,
कितने शौक़ीन होते हैं,
रिमझिम तो है पर सावन गायब है,
बच्चे तो हैं पर बचपन गायब है,
क्या हो गयी है तासीर जमाने की यारो,
अपने तो हैं पर अपनापन गायब है.

 

अपनापन कभी गायब नहीं होता,
महज हैट लगाने से कोई साहब नहीं होता
अपनापन देने से अपनापन मिलता है
अपनेपन में कोई खोया-पाया नहीं होता
अपनापन तो निर्लिप्त होकर देना होता है
वापिसी की चाहत न रखो
तो सवाया अपनापन मिलता है
तरीका कोई भी हो, संकल्प दृढ़ हो
तो अपनापन बरकरार रहता है.

 

हम राह पर चलते किये
बिना कोई हसरत लिए
जो मिल गया अपना लिया
खुश हो लिए आगे बढ़े
मुहब्बत का सवेरा हूँ
मुहब्बत ही लुटानी है
मुहब्बत की नई खुशबू
फ़िज़ाओं में बहानी है
नहीं हैं ख्वाहिशें मुझको
गगन में ऊँचा उड़ने की
कदम दो-चार जो भी हों
खुशी के हों अमन के हों
मुझे कल की फ़िकर न थी
कोई कल का ज़िकर न था, न है
मैं तो बस आज में जीता हूँ
मुझे बस आज में जीना है!

दिलखुश जुगलबंदी- 18 के कामेंट्स में रविंदर सूदन, लीला तिवानी और गौरव द्विवेदी की काव्यमय चैट पर आधारित दिलखुश जुगलबंदी.

अपनी नई काव्य-पंक्तियों को कविता रूप में मेल से भेजें. जिनकी काव्य-पंक्तियां दिलखुश जुगलबंदी में सम्मिलित हो सकेंगी, उन्हें मेल से सूचित किया जाएगा.

अगली दिलखुश जुगलबंदी के लिए आप सबके लिए हमेशा के लिए खुला आमंत्रण है. कविता प्रकाशित या अप्रकाशित हो सकती है. आपका ब्लॉगर होना भी आवश्यक नहीं है. बस कामेट्स में और ई.मेल द्वारा अपनी काव्यमय पंक्तियां लिख भेज दीजिए. संशोधन और एडीटिंग हम करेंगे.

काव्य-पंक्तियां भेजने के लिए पता-

*लीला तिवानी

लेखक/रचनाकार: लीला तिवानी। शिक्षा हिंदी में एम.ए., एम.एड.। कई वर्षों से हिंदी अध्यापन के पश्चात रिटायर्ड। दिल्ली राज्य स्तर पर तथा राष्ट्रीय स्तर पर दो शोधपत्र पुरस्कृत। हिंदी-सिंधी भाषा में पुस्तकें प्रकाशित। अनेक पत्र-पत्रिकाओं में नियमित रूप से रचनाएं प्रकाशित होती रहती हैं। लीला तिवानी 57, बैंक अपार्टमेंट्स, प्लॉट नं. 22, सैक्टर- 4 द्वारका, नई दिल्ली पिन कोड- 110078 मोबाइल- +91 98681 25244

One thought on “दिलखुश जुगलबंदी- 20

  • लीला तिवानी

    हर रूप में हमारे पाठक-कामेंटेटर्स बेमिसाल हैं. देखिए क्या रंग जमाया है हमारे बेमिसाल-लाजवाब हमारे पाठक-कामेंटेटर्स ने-
    ‘फोन के रिश्ते भी अजीब होते हैं,
    बेलैंस रखकर भी लोग गरीब होते हैं,’
    से लेकर
    ‘वापिसी की चाहत न रखो
    तो सवाया अपनापन मिलता है’
    और फिर
    ‘मुझे कल की फ़िकर न थी
    कोई कल का ज़िकर न था, न है
    मैं तो बस आज में जीता हूँ
    मुझे बस आज में जीना है!’
    यानी पूरे जीवन का निचोड़. यही तो है आशा-निराशा, उतार चढ़ाव जिसे हम जीवन या जिंदगी कहते हैं. हर हाल में हमें आशा का दामन थामे रखना है.

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