व्यंग्य – किसी की सुनना नहीं
मुँह का काम कुछ ज़्यादा ही बढ़ गया लगता है। जब यह शुरू हो जाता है तो किसी की सुनना उसके सिद्धान्तों के विरुद्ध है। अब क्या किया जाए कि ब्रह्मा जी से इसे बनाने में भूल हो गई कि इसके अंदर कान नहीं बनाए। कानों की स्थापना मुँह से आठ अंगुल ऊपर कर दी, जो मुँह से कम दूरी नहीं है। शायद ऐसा करके ब्रह्मा ने उचित ही किया हो, अन्यथा कानों और मुँह के बीच ही महाभारत ठना रहता।
एक बात औऱ भी ध्यान देने योग्य है कि कान दो -दो और मुँह एक ही बनाया गया! इसका सीधा सा अर्थ यह निकल कर आता है कि मुँह से अधिक काम कानों का है। अर्थात बोलो कम ,सुनो ज़्यादा। लेकिन देखा यह जाता है कि आदमी का मुँह बोलता अधिक है , कान सुनना ही नहीं चाहते। मुँह का कार्य कुछ ज़्यादा ही बढ़ गया प्रतीत होता है।
मुँह और कानों की कार्यप्रणाली में भी बहुत अंतर है।जब यह बोलने लगता है , तो लगता है कि कुछ हो रहा है , लेकिन जब कान सुनते हैं, अथवा नहीं भी सुनते हैं , तो ऐसा कोई भी सिग्नल नहीं मिलता , कि कानों ने सुना या नहीं सुना। कान बेचारे शांतिप्रिय होते हैं। इसलिए कहीं हुई बात को वे कितना ग्रहण कर पाते हैं , यह उनकी इच्छा पर निर्भर करता है।कान बन्द हैं कि खुले ? यह पता लगाना भी कोई सहज कार्य नहीं है।क्योंकि प्रकृति ने इनके ऊपर किसी प्रकार के कपाटों की व्यवस्था नहीं की। वह तो शायद इसलिए नहीं की होगी, कि पता नहीं कौन सा मुँह
कब खुल जाए और पता लगा कि कर्ण -कपाट पर तो कुंडी लगी हुई थी। इसलिए प्रकृति ने चौबीस घण्टे , सातों दिन , बारहों मास खुले रहने की अनुमति प्रदान कर दी। काम भी ज़्यादा ! पर आजकल के आदमी की तरह वे भी काम-चोर हो गए। जो सुनना चाहिए , नहीं सुनेंगे। सौ में से 90,80 ,70 , 50, 30 ,10 या उससे भी कम सुनेंगे , ये तो कोई भी नहीं जानता। कान की बात कान ही जानें!
नेताजी भरी सभा में अपने एक ही मुँह से भीषण भाषण करते हैं ,किसके लिए ? हजारों लाखों कानो के लिए ही तो! लेकिन कितने कान हैं , जो खुले दिखते हुए भी वास्तव में खुले हुए होते हैं। कुछ तो एकदम बन्द , जैसे उनके ऊपर प्लास्टर कर दिया गया हो। रुई ठूँसकर भर दी गई हो। कुछ ऐसे कान कि इधर से बात गई उधर पार। याने आरपार । ये आरपार कानों की तो महिमा ही अपरम्पार है। कुछ भी अपने पास न रखने की जैसे कसम ही उठा रखी है ! न किसी के अच्छे न बुरे। जैसी की तैसी रख दीनी चदरिया।
छोटी से लेकर बड़ी कक्षाओं में पढ़ने वाले/वाली पढवैया भैयाजी औऱ बहनजियों को भी तो इन्हीं कान के हालातों से गुजरना पड़ता है। किसके कान कहाँ हैं , ये तो कान जानें या कान वाला जाने। तभी तो किसी के 80 फीसद किसी के 8 फीसद ही रह जाते हैं अंक। परीक्षाफल औऱ अंक भी कानों और उनके ध्यानों पर निर्भर करता है।
कानों की एकता भी लाजबाव है ! यदि सुनेंगे तो दोनों , नहीं तो एक भी नहीं। लेकिन जब बहरे होंगे तो एक -एक कर होंगे । ताकि बीमारी की हालत में दूसरा तो अपना काम कर सके और उसके बदले का सुनकर उसका सहयोग कर सके। सहित्य के पन्नों में कानों पर अनेक मुहावरे ही बना दिए गए।कानाफूसी करना, कानों कान खबर न होना , कान में तेल डालना , एक कान की बात दूसरे को पता न लगना, कान पर जूं न रेंगना, कान कतरना, कान का कच्चा होना आदि आदि।
आज आदमी का मुँह इतना बलवान हो गया है कि कि उसने *कान – मुँह दौड़ प्रतियोगिता* में दोनों कानों को पीछे छोड़ दिया है। अब एक कान तो मुँह से कम्पटीशन नहीं कर सकता। भले ही वे एक दूसरे के पूर्व पश्चिम हैं , फ़िर भी उनका अपना सशक्त संगठन है। अकेला कान कर भी क्या सकता है।उन्हें डर है कि एक बड़ा सा मुँह , उसमें भी बत्तीस बड़े -छोटे दाँत और दाढ़ें। इन सबके साथ कान बेचारे अपना झंडा खान7 गाढ़ें? उन 32 बॉडी गार्डों के बीच लपलपाती हुई , लहराती हुई लम्बी बिना हड्डी की जीभ ? पता नहीं कब किधर बल खा जाए! क्या कह जाए । इसकी गवाह कानों को बनाए ,तो बेचारे मौनीबाबा कान किस -किस की साक्षी बन न्याय के दरबार में जाएँ ? इसलिए चुप रहते हैं , खुश रहते हैं । न ऊधो के लेने में , न माधो के देने में।
कान तो फिर कान हैं , देह के अंतर्मुखी शान हैं ! इन्हीं से आनन्द -गान है , इन्हीं में शोर का विधान है। इन्हीं में सुनाई पड़ती सुरीली तान हैं। कान ही तो शान्त जीवन की शान हैं। कानों के लिए ही तो कहा गया है कि सुनो सबकी ,करो मन की। अरे! जब होंगे गालों के ऊपर कान,
तभी तो सुन पाएंगे मुँह का वचन।गाल तो गाल , जिनके अंदर जलती वाणी की मशाल ! कहकर घुस गई वदन के अंतराल, अब झेलते रहें चौकीदारी करते खड़े -खड़े दो कान।पर किया भी क्या जा सकता है , कर्तव्य तो कर्तव्य है। करना ही चाहिए। पहले कर्तव्य बाद में अधिकार। यह है दोनों कानों को स्वीकार।
— डॉ. भगवत स्वरूप ‘शुभम’