सर्पदंश
”ये मुझे क्या होता जा रहा है? छः साल हो गए, अन्न का एक दाना तक नहीं चखा, पाइप से ही लिक्विड डाइट ले रही हूं, काम पर भी आ रही हूं, फिर भी दिन-ब-दिन मोटी होती जा रही हूं.” फुड पाइप कैंसर से पीड़ित हरप्रीत को लगा वह खुद से ही बात कर रही थी.
उसका अतीत ही मानो उसे कचोट रहा था. प्रिंसिपल की कुर्सी पर बैठे-बैठे उसे न जाने क्यों लग रहा था, कि उसकी कुर्सी सांपों से घिरी हुई है. डसते हुए सर्पों से वह भयभीत होकर चिल्लाना चाहती थी- ”सांप”, पर स्टॉफ क्या कहेगा, इस संकोच के कारण उसकी आवाज ने निकलने से इनकार कर दिया, लेकिन सर्पदंश को बोलने से नहीं रोक पाई.
”मैडम, आप तो खुद सर्पदंश हैं, सांप आपको क्या डसेगा?”
”कौन हो तुम?”
”लो मुझे नहीं पहचाना! मैं मनीषा हूं, जिसकी महीने में दो दिन की सैलरी आप खा जाती थीं और जाने कैसे इंस्पैक्शन होता था, आप साफ बच निकलती थीं.” यह पहला सर्पदंश था.
”मुझे तो पहचानो, मैं नताशा हूं. वही नताशा, जिसको रिटायरमेंट के बाद भी तुमने डसना नहीं छोड़ा. रिएम्प्लॉयटमेंट के बाद रोज 5 पीरियड मैं सिर खपाती थी और 2 पीरियड के पैसे आपकी पर्स में जाते थे.” यह अगला सर्पदंश था.
”मैं हूं तनु. मुझे तो आप भूली नहीं होंगी. मेरे प्रमोशन की लिस्ट आपने दबा दी थी. समय रहते मेरे अप्लाई न करने के कारण मेरे बाद आपकी भतीजी का नंबर था, आपने उसका प्रमोशन होने दिया था. मैं आज तक प्रमोशन से वंचित रहकर दंश को सहने को विवश हूं.” एक और सर्पदंश था.
”मैं आशा, वही जिसकी पुरानी सर्विस की काउंटिंग की फाइल आपने आगे नहीं चलाई और मैं 35 साल से उस लड़ाई को लड़ने में मर-खप रही हूं.” सर्पदंश चुकने को ही नहीं आ रहे थे.
”बस करो, और कितने सर्पदंश मुझे डसेंगे?” वह बोलना चाहती थी, पर बोलती कैसे? सर्पदंश ने निःशब्द अपना काम कर दिया था.
जीवन में कभी-न-कभी सच्चाई के सर्पदंश लगते ही हैं, तब पश्चाताप होता है, यह पश्चाताप ही अंत समय में सर्पदंश बनकर उसको डस लेता है और समय रहते न संभलने वाला लोभी-लालची-अन्यायी व्यक्ति कुछ नहीं कर पाता. किए गए अपराधों का आभास उसके मन के साथ तन को भी खोखला कर चुका होता है.