हिन्दी ग़ज़ल के सशक्त हस्ताक्षर दुष्यन्त कुमार
दुष्यन्त कुमार की पैदाइश उत्तर प्रदेश के बिजनौर जनपद की तहसील नजीबाबाद के ग्राम राजपुर नवादा में 1 सितम्बर 1933 में हुई थी। आम बोलचाल के शब्दों को अश्आर में ढाल कर उन्होंने हिन्दी ग़ज़ल को बड़ी बुलन्दी अता की। जनता के ज़बान से आज भी उनके शे’र अक्सर ओ बेसतर सुनने को मिल जाते हैं।उनके ग़ज़ल संग्रह “साये में धूप” ने उन्हें चन्द दिनों में ही प्रसिद्धि की नयी ऊँचाइयों पर पँहुचा दिया। नेताओं के झूठे वादों और ज़मीनी हक़ीक़त को। उजागर करता उनका शे’र
कहाँ तो तय था चराग़ाँ हर एक घर के लिए।
कहाँ चराग़ मयस्सर नहीं शहर के लिए।
बहुत लोकप्रिय हुआ। उनकी एक ग़ज़ल के चन्द मशहूर अश्आर हैं:—
यहाँ दरख़्तों के साए में धूप लगती है,
चलें यहाँ से चलें और उम्र भर के लिए।
न हो क़मीज़ तो पाँव से पेट ढक लेंगे,
ये लोग कितने मुनासिब हैं इस सफ़र के लिए।
ख़ुदा नहीं न सही आदमी का ख़्वाब सही,
कोई हसीन नज़ारा तो है नज़र के लिए।
वो मुतमइन हैं कि पत्थर पिघल नहीं सकता,
मैं बेक़रार हूँ आवाज़ में असर के लिए।
जिएँ तो अपने बग़ैचा में गुलमुहर के तले,
मरें तो ग़ैर की गलियों में गुलमुहर के लिए।
उनकी अन्य कृतियाँ
सूर्य का स्वागत
आवाज़ों के घेरे
जलते हुए वन का बसन्त(कविता संग्रह)
एक कण्ठ विष पासी(काव्य नाटिका)
आपका देहावसान 30 दिसम्बर 1975 को हुआ।
— अब्दुल हमीद इदरीसी