धर्म-संस्कृति-अध्यात्म

ईश्वरीय ज्ञान वेद के जन-जन में प्रचार के लिए समर्पित ऋषि दयानन्द

ओ३म्

वेद कहानी किस्से अथवा किसी धर्म प्रचारक मनुष्य के उपदेशों का ग्रन्थ नहीं है अपितु यह इस संसार की रचना करने व इसका पालन कर रहे सर्वव्यापक, सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान एवं सच्चिदानन्दस्वरूप परमात्मा का दिव्य ज्ञान है जो उसने सृष्टि के आरम्भ में चार ऋषियों अग्नि, वायु, आदित्य तथा अंगिरा को अमैथुनी सृष्टि में उत्पन्न कर प्रदान किया था। सृष्टि के आरम्भ  में प्रथम पीढ़ी से ही वेदाध्ययन व वेद प्रचार की परम्परा आरम्भ हो गई थी। वेद सद्ज्ञान का पर्याय होने के कारण सृष्टि के आरम्भ से महाभारत युद्ध तक के लगभग 1.96 अरब वर्षों तक सृष्टि के सभी मनुष्यों के धर्म व आचरण के ग्रन्थ रहे और उसके बाद भी भारत के अधिकांश लोगों के धर्मग्रन्थों में शीर्ष स्थान पर विद्यमान रहे। आज भी वेद सभी सत्य विद्याओं से युक्त होने के कारण विश्व के निष्पक्ष विद्वानों के यही वेद माननीय एवं आदरणीय ग्रन्थ हैं। ऋषि दयानन्द (1825-1883) गुजरात के मौरवी नगर के टंकारा ग्राम के निवासी शिवभक्त पिता करषनजी तिवारी की सन्तान थे। अपनी आयु के चैदहवें वर्ष में अपने पिता की आज्ञा से उन्होंने शिवरात्रि का व्रत रखा था। रात्रि को अपने ग्राम के शिव मन्दिर में पिता के साथ जागरण करते हुए उन्होंने मन्दिर की शिव की पिण्डी वा मूर्ति पर चूहों को उछलते-कूदते देखा था। इस दृश्य से उत्पन्न उनकी आशंकाओं का समुचित उत्तर न मिलने के कारण मूर्तिपूजा के प्रति उनका विश्वास समाप्त हो गया था। कुछ काल बाद उनकी बहिन और चाचा की मृत्यु ने दयानन्दजी में वैराग्य उत्पन्न कर दिया और यह सच्चे शिव और मृत्यु पर विजय के उपाय जानने और उनका आचरण कर जन्म-मरण से छूटने के लिये प्रयत्नशील हो गये। उनके पुरुषार्थ से प्रसन्न होकर ईश्वर ने उनकी इच्छा को पूरा किया और वह ईश्वर के सत्यस्वरूप को जानकर योग विधि से उपासना कर ईश्वर का साक्षात्कार करने में सफल हुए थे।

ईश्वर ने उनके हृदय में विद्या प्राप्ति के प्रति भी तीव्र अनुराग उत्पन्न किया था। सौभाग्य से उन्हें विद्या व वेद-व्याकरण के सूर्य मथुरा के प्रज्ञाचक्षु दण्डी स्वामी विरजानन्द सरस्वती जी का सान्निध्य प्राप्त हुआ जो अपने समय के वेद-वेदांग व्याकरण के शीर्ष विद्वान वा प्रसिद्ध व्याकरणाचार्य थे। उन्हीं से अष्टाध्यायी-महाभाष्य एवं निरुक्त का अध्ययन कर आपने वेद के रहस्यों को जानने की योग्यता प्राप्त की थी। सौभाग्य से उन्हें विद्या की प्राप्ति के कुछ समय बाद प्रयत्न करने पर विलुप्त वेदों की संहिताओं की प्राप्ति हुई जिसका अध्ययन कर वह देश और संसार से धार्मिक व सामाजिक जगत में विद्यमान अविद्या व उसके अन्धकार को दूर करने में आन्दोलनरत हुए। वेदों की प्रतिष्ठा ही उनके जीवन का उद्देश्य प्रतीत होता है जिसके अन्तर्गत अन्धविश्वासों का उन्मूलन, सबको वेदाध्ययन का समान अधिकार प्रदान करना, असत्य का खण्डन तथा सत्य का मण्डन सहित देश में शिक्षा प्रसार ग्रन्थ लेखन के माध्यम से वेदों की प्रतिष्ठा प्रचार के कार्य सम्मिलित हैं। स्वामी दयानन्द ने महाभारत युद्ध के बाद वैदिक धर्म में आयी समस्त विकृतियों को दूर किया था। वेदों को धर्म का आदि मूल तथा सृष्टि की आदि से प्रलय अवस्था तक का सर्वोपरि व एकमात्र धर्मग्रन्थ भी सिद्ध किया था।

वेद के प्रचार प्रतिष्ठा के लिये ही उन्होंने 10 अप्रैल सन् 1875 को मुम्बई में आर्यसमाज आन्दोलन की स्थापना की थी जिसका उद्देश्य वेद प्रचार के माध्यम से अविद्या का नाश तथा विद्या की वृद्धि करना था। आर्यसमाज की स्थापना कर ऋषि दयानन्द ने आर्यसमाज को दस नियम एवं उद्देश्य दिये। यह नियम इतने महत्वपूर्ण है कि हम इनका यहां उल्लेख करना उचित एवं आवश्यक समझते हैं। प्रथम नियम है सब सत्य विद्या और जो पदार्थ विद्या से जाने जाते हैं उनका आदि मूल परमेश्वर है। दूसरा नियम है ईश्वर सच्चिदानन्दस्वरूप, निराकार, सर्वशक्तिमान, न्यायकारी, दयालु, अजन्मा, अनन्त, निर्विकार, अनादि, अनुपम, सर्वाधार, सर्वेश्वर, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, अजर, अमर, अभय, नित्य, पवित्र और सृष्टिकर्ता है। उसी की उपासना करनी योग्य है। नियम 3- वेद सब सत्य विद्याओं का पुस्तक है। वेद का पढ़ना पढ़ाना और सुनना सुनाना सब आर्यों का परम धर्म है। नियम 4- सत्य के ग्रहण करने और असत्य को छोड़ने में सर्वदा उद्यत रहना चाहिये। नियम 5- सब काम धर्मानुसार अर्थात् सत्य और असत्य को विचार करके करने चाहिये। नियम 6- संसार का उपकार करना (आर्य) समाज का मुख्य उद्देश्य है अर्थात् सबकी शारीरिक, आत्मिक और सामाजिक उन्नति करना। नियम 7- सबसे प्रीतिपूर्वक धर्मानुसार यथायोग्य वर्तना चाहिये। नियम 8- अविद्या का नाश और विद्या की वृद्धि करनी चाहिये। नियम 9- प्रत्येक को अपनी ही उन्नति में सन्तुष्ट नहीं रहना चाहिये किन्तु सबकि उन्नति में अपनी उन्नति समझनी चाहिये। नियम 10- सब मनुष्यों को सार्वजनिक सर्वहितकारी नियम पालने में परतन्त्र रहना चाहिये और प्रत्येक हितकारी नियम पालने में सब स्वतन्त्र रहें।

आर्य समाज के यह सभी नियम तर्क व युक्तियों पर आधारित हैं। हमें संसार की किसी धार्मिक व सामाजिक संस्था के ऐसे सुन्दर नियम दिखाई नहीं देते। पहले ही नियम में परमेश्वर को इस सृष्टि का कर्ता व रचयिता बताया गया है। सृष्टि के सभी पदार्थों की रचना भी ईश्वर ने ही की है, इसका बोध भी पहले नियम से होता है। प्रथम नियम में सब विद्याओं का मूल भी परमात्मा को बताया गया है। ऋषि दयानन्द के समय में ईश्वर के स्वरूप सहित गुण, कर्म व स्वभाव के विषय में भारी अज्ञानता व भ्रम थे। अनेक मत तो ईश्वर को मनुष्य के समान ही एक व्यक्ति की आकृति के रूप में ही देखते थे। कोई ईश्वर को वैकुण्ठ में, कोई मूर्ति में, कोई चैथे आसमान पर तो कोई उसे सातवें आसमान पर बताता था। ऋषि दयानन्द ने आर्यसमाज के दूसरे नियम में घोषणा कर ईश्वर को निराकार एवं सर्वव्यापक बताया और उसे वेद के प्रमाणों और तर्कों से भी सिद्ध किया। योगदर्शन के अनुसार उपासना करने से साधक को ईश्वर का प्रत्यक्ष वा साक्षात्कार भी होता है। यह ईश्वर का प्रत्यक्ष प्रमाण होता है। इसके अतिरिक्त भी ईश्वर के गुण सृष्टि में सर्वत्र प्रकाशित दृष्टिगोचर हो रहे हैं। इन गुणों के ज्ञान से इन गुणों के आश्रय वा गुणी परमात्मा का ज्ञान होता है। इस विषय में ऋषि प्रदत्त एक नियम है कि रचना विशेष उनमें विद्यमान गुणों को देखकर उन गुणों के अधिष्ठाता ईश्वर का प्रत्यक्ष होता है। 

ऋषि दयानन्द की सभी मान्यताओं व सिद्धान्त वेदों पर पूर्णतः आधारित हैं। उन्होंने वेदों को स्वतः प्रमाण और अन्य ग्रन्थों को वेदानुकूल होने पर परतः प्रमाण के रूप में स्वीकार किया है। वेद विषयक यह मान्यता सृष्टि के आरम्भ से सभी ऋषियों को मान्य थी। ऋषि दयानन्द ने अपने विशाल ज्ञान भण्डार एवं योग की उपलब्धियों के आधार पर वेदों का सृष्टि क्रम वा सृष्टि के नियमों के अनुकूल एवं तर्क व युक्तियों पर आधारित वेद-भाष्य प्रस्तुत किया है। उनके वेद-भाष्य को देखकर ही उसकी विशेषताओं का अनुमान किया जा सकता है। इतना जान लें कि ऋषि ने वेद के मन्त्रों का भाष्य करते हुए पहले मन्त्र का सन्धि विच्छेद किया है। फिर उसका अन्वय किया है। इसके बाद अन्वय के अनुसार सभी पदों का अर्थ जिसे पदार्थ कहते हैं, प्रस्तुत किया है। पदार्थ के बाद ऋषि ने मन्त्र का भावार्थ भी दिया है। ऋषि ने पदार्थ व भावार्थ संस्कृत व हिन्दी दोनों भाषाओं में पृथक पृथक प्रस्तुत किये हैं। इससे वेदों के प्रत्येक मन्त्र के एक एक-पद व शब्द का अर्थ पाठक को हृदयंगम हो जाता है। संस्कृत न जानने वाले हमारे हिन्दी पठित सभी बन्धु भी वेद के सभी शब्दों वा पदों से परिचित होने के साथ उनके अर्थों से भी परिचित हो जाते हैं। यह ऋषि दयानन्द द्वारा एक प्रकार की क्रान्ति की गई थी जिसे वेद-क्रान्ति का नाम दे सकते हैं। ऋषि दयानन्द से पूर्व ऐसा भाष्य न वेदों का सुलभ था और न ही उपनिषद एवं दर्शन ग्रन्थों का। ऋषि के शिष्य व अनुयायियों ने संस्कृत के प्रायः सभी ग्रन्थों का वेदभाष्य की शैली पर पदार्थ सहित भावार्थ भी प्रस्तुत कर वैदिक साहित्य की प्रशंसनीय सेवा की है। उन्होंने न केवल वेद भाष्य ही किया अपितु अन्य अनेक ग्रन्थों का प्रणयन भी किया है। उनके प्रमुख ग्रन्थ हैं सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, संस्कारविधि, आर्याभिविनय, व्यवहारभानु, पंचमहायज्ञविधि एवं गोकरूणानिधि आदि। इन सभी ग्रन्थों के माध्यम से उन्होंने वेदों का सम्पूर्ण ज्ञान अपने ग्रन्थों में प्रस्तुत कर दिया है।

ऋषि दयानन्द के जीवन से प्रेरणा लेकर और उनके द्वारा प्रचारित गुरुकुलीय शिक्षा पद्धति से अनेक विद्वान आर्यसमाज को मिले हैं जिन्होंने वैदिक साहित्य में अपूर्व वृद्धि की है। विगत 136 वर्षों में आर्यसमाज के विद्वानों ने इतना साहित्य लिखा है जिसे पढ़ना भी किसी के लिये सम्भव नहीं है। आज भी अनेक विद्वान वैदिक साहित्य की वृद्धि में लगे हुए हैं। वेद भाष्य हिन्दी में होने के कारण कोई भी हिन्दी जानने वाला व्यक्ति सत्यार्थप्रकाश पढ़कर वेदों का तात्पर्य जानकर वेदज्ञान से लाभ उठा सकता है। हमने भी ऋषि दयानन्द सहित आर्य विद्वानों के ग्रन्थों को पढ़ा उनके उपदेशों को सुना है। यही हमारे जीवन में वेद विषयक जानकारी प्राप्त करने का मुख्य साधन रहा है। कोई भी व्यक्ति हिन्दी के अक्षरों का ज्ञान प्राप्त कर हिन्दी पढ़ने की योग्यता प्राप्त कर ऋषि दयानन्द के वेदभाष्य की सहायता से वेदों का विद्वान बन सकता है। वेद का विद्वान बनने की आंशिक पूर्ति सत्यार्थप्रकाश के अध्ययन से हो जाती है। ऋषि दयानन्द का मानव जाति पर यह बहुत बड़ा उपकार है कि उन्होंने वेदों सहित मत-मतानतरों की वास्तविकता को जानने के लिये सत्यार्थप्रकाश जैसा अपूर्व ग्रन्थ हमें दिया है। ऋषि दयानन्द ने वेदों का प्रचार कर हिन्दू जनता को ईसाई एवं इस्लाम मत में मतान्तरित होने से बचाया है। इतना ही नहीं वेदों की महत्ता को जानकर बहुत से भिन्न-भिन्न मतों के विद्वान वैदिक धर्मी बने हैं। आर्यसमाज किसी प्रकार के अन्धविश्वास व मिथ्या परम्पराओं सहित जन्मना जातिवाद को नहीं मानता। संसार के सभी मनुष्य ईश्वर की सन्तानें हैं और आर्यसमाज सभी को अपना भ्राता व भगिनी स्वीकार करता है। आर्यसमाज का ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ की भावना में दृढ़ विश्वास है। आर्यसमाज के अनुयायी किसी भी सम्प्रदाय के अनुयायी के साथ बैठकर भोजन कर सकते हैं और अपने पुत्र व पुत्रियों का वैदिक धर्म स्वीकार किये हुए अन्य मत के बन्धुओं से विवाह सम्बन्ध भी कर सकते हैं। ऐसे अनेक उदाहरण आर्यसमाज में विद्यमान है। आर्यसमाज ने ही युवावस्था में गुण-कर्म-स्वभाव के आधार पर विवाहों को प्रचलित किया था जिससे देश में जन्मना जाति में ही विवाह करने के बन्धन ढीले पड़े हैं व समाप्त हो रहे हैं।

ऋषि दयानन्द ने वेदों व वैदिक साहित्य का ही अध्ययन किया था। वह अंग्रेजी भाषा के प्रयोग से अपरिचित थे। उन्होंने ही सर्वप्रथम देश को स्वराज्य, सुराज्य व देश की स्वतन्त्रता का मन्त्र दिया था जिसकी प्रेरणा उन्होंने वेदों से प्राप्त की थी। उन्होंने विदेशी राज्य को स्वदेशीय राज्य की तुलना में त्याज्य बताया था। अंग्रेजी राज्य में इस प्रकार की घोषणा करना मृत्यु को निमंत्रण देना था तथापि निर्भीक दयानन्द ने अपने प्राणों की चिन्ता किये बिना देश के हित में यह घोषणा की थी। उनकी मृत्यु के षडयन्त्र में कौन-कौन से कारण थे, इसका पूरा-पूरा पता नहीं चलता। सभी अन्धविश्वासों एवं मिथ्या परम्पराओं का उन्मूलन भी ऋषि दयानन्द ने किया। शिक्षा व विद्या के प्रसार के लिये उन्होंने गुरुकुलीय शिक्षा प्रणाली को प्रोत्साहित किया। गुरुकुलीय शिक्षा प्रणाली की विशेषता यह है कि इसमें दीक्षित युवक वेदज्ञान से परिपूर्ण होते हैं। देश से अविद्या दूर करने के लिये आर्यसमाज ने देश के सभी भागों में बड़ी संख्या में डी0ए0वी0 स्कूल-कालेज एवं गुरुकुल स्थापित किये। देश की आजादी सहित समाज को अन्धविश्वासों से मुक्त कराने तथा सत्य के ग्रहण और असत्य का त्याग करने की प्रेरणा करने में ऋषि दयानन्द का सर्वोपरि योगदान है। वेदों के शीर्ष विद्वान और महाभारत के बाद वेदों के सत्यार्थों के प्रथम प्रचारक व समाज सुधारक ऋषि दयानन्द का हम हृदय से अभिनन्दन एवं वन्दन करते हैं और इस लेख को विराम देते हैं। ओ३म् शम्।

मनमोहन कुमार आर्य