कविता
ग़मों में लिपटी धुंध हूँ ,
जैसे बिखरे जज़्बात हूँ ।
रूह की बेआवाज़ चीख़ सा,
बेसहर एक रात हूँ मैं।।
बेफ़िक्री में जी गयी,
एक अधूरी जींद हूँ ।
समा जाते जिसमें हज़ार दर्द,
वो शराब की इक बूँद हूँ मैं।।
जीवन की इस झंझावत में
एक टूटा पलाश हूँ ।
वीरानों में भटकता,
जैसे ज़िंदा लाश हूँ मैं ।