ग़ज़ल
जो मेरे दिल के बेहद पास था वो महबूब मेरा बिछड़ गया
इस आम सी दुनिया में खास था वो महबूब मेरा बिछड़ गया
अब डूब कर इस जाम में भी तिश्नगी मिटती नहीं
मेरी रूह की जो प्यास था वो महबूब मेरा बिछड़ गया
सोचता हूँ हाथ उठा कर माँगूं अब मैं क्या कि जो
पहली और आखरी आस था वो महबूब मेरा बिछड़ गया
हालात की दलदल में फंसकर रह गई कश्ती-ए-इश्क
जिसे मेरी वफाओं का पास था वो महबूब मेरा बिछड़ गया
आहें और आँसू ही अब तो हैं मेरी तकदीर में
मुझे गम भी जिसका रास था वो महबूब मेरा बिछड़ गया
— भरत मल्होत्रा