लघुकथा -गणेश जी की उदासी
भारत के गांव -शहर मोहल्ला ,गली -गली,घर घर गणेश जी की प्रतिमा स्थापित थी। गणेश जी सभी तरफ विराजमान थे।
यह देखकर नारद जी ने गणेश जी से पूछा,”हे ! प्रथम पूज्य श्री गणेश, आप तो एक ही हैं फिर भारत के गांव गली मोहल्लों घर -घर आप कैसे विराजमान हो जाते हैं?”
गणेश जी ने मुस्कुराते हुए कहा,”हे! देवऋषि नारद उसी तरह जिस तरह आजकल इंटरनेट पर एक चित्र पूरी दुनिया मे दिखाई देता है। “
नारद ऋषि ने अचंभित होते हुए कहा,”अच्छा, ऐसा! अब मनुष्य भी वो कर लेते हैं जो ईश्वर कर सकते हैं।”
गणेश जी ने कहा, “जी हां, इस कलियुग में मनुष्यों ने खूब तरक्की कर ली है।अब लोग चाँद पर भी घर बनाएंगे पर इतनी तरक्की के बाद भी भारत के लोगों की पुरातन सोच नहीं बदली अभी भी वे धर्म,जाति, वर्ण, वर्ग के नाम पर बंटे हुए हैंऔर आपस मे लड़ मर रहे हैं। मैं झोपड़पट्टी में विराजमान होता हूँ तो गरीबों का गणेश।अमीरों के यहां अमीरों का गणेश बन जाता हूँ। मुझे उसी रूप में सजाया जाता है। यह देखकर मुझे बहुत दुःख होता है। काश! लोग मुझे न बांटते पर मैं बंट जाता हूं।” यह कहते हुये गणेश जी के मुख पर उदासी छा गई।
— डॉ. शैल चंद्रा