ग़ज़ल
मेरी मज़ार पे लेकर कुदाल आये थे
वहाँ तो दूर तलक धूप का समंदर है
दरख्त हमने जहाँ उम्र भर लगाये थे
उसी ने बढ़ के मेरे जिस्म पे कीलें ठोंकी
सलीब सारी उमर जिसकी हम उठाये थे
अँधेरी रात में दामन छुड़ा गये वे भी
ज़माना कहता था वो तो हमारे साये थे
मेरे शहर में मेरे साथ था अज़ब मंजर
तमाम भीड़ थी चेहरे सभी पराये थे
वफ़ा के नाम पे क्यों आँख झुक गई उनकी
जिन्होंने ताज महल अनगिनत बनाये थे
है कुछ तो बात जो अब आँख उनकी भी नम है
खबर पे मौत की जो मेरी मुस्कुराये थे
— मनोज श्रीवास्तव लखनऊ