कहानी

परिणय के बाद

मीरा ने ज्योंही रसोई का कचरा डालने के लिए घर के पिछवाड़े का द्वार खोला, सामने एक सुदर्शन युवक को उसी तरफ घूरता पाकर सकपका गई. उसने बिना इधर-उधर देखे जल्दी से ढेर पर कचरा डाला और अन्दर जाकर तुरंत द्वार बंद कर दिया. बड़ी मुश्किल से अपनी बढ़ी हुई धड़कनों पर काबू पाया. उसे समझ में नहीं आ रहा था कि आखिर वो कौन है और उसे इस तरह क्यों घूर रहा था…पहले तो कभी उसे वहाँ नहीं देखा.

मीरा का उस गाँव की निम्न मध्यमवर्गीय कालोनी में छोटा सा दो कमरों का घर था जो तीन तरफ से ईंटों की चारदीवारी से घिरा हुआ था. सामने की तरफ कुछ चौड़ी और पक्की सड़क तथा पिछवाड़े कुछ संकरी और कच्ची गली थी. सामने वाला कमरा कुछ बड़ा और दूसरा छोटा, एक सीध में बने हुए थे. आगे और पीछे का आँगन पक्का था और बगल वाली कच्ची ज़मीन पर नीम का एक बड़ा सा पेड़ लगा हुआ था. छोटे कमरे से बाहर आँगन में निकलते ही एक तरफ क्रमशः रसोईघर और स्नानघर-शौचालय बने हुए थे. आँगन का द्वार कच्ची गली में खुलता था जिसका उपयोग महिलाएँ अक्सर कचरा डालने के लिए ही करती थीं. चूँकि सुबह मुँह-अँधेरे ही सफाई होकर कचरा वहाँ से उठ जाता था तो मीरा जल्दी उठकर सबसे पहले यही काम करती थी ताकि द्वार के सामने गंदगी रह न जाए.

उस कोलोनी के सभी घर लगभग इसी तरह बने हुए थे. पिछवाड़े का द्वार खोलते ही सामने वाले घरों की कतार का पिछवाड़ा नज़र आता था. उसके सामने वाले दो घरों के बीच की खाली ज़मीन पर कोई चारदीवारी नहीं थी बल्कि मालिकों ने अपना अपना हिस्सा कँटीले तारों की बाड़ से घेर रखा था. दाहिनी तरफ वाले घर की स्वामिनी यानी मीना की अम्मा और मीरा की अम्मा के बीच अच्छी दोस्ती थी. वे अक्सर पिछवाड़े से ही एक दूसरी के यहाँ आना जाना करती थीं. मीना, मीरा से कुछ वर्ष बड़ी थी और उसका विवाह हो चुका था, अतः मीरा का उससे अधिक परिचय नहीं था. कभी-कभी वो उनके घर अपनी माँ को बुलाने चली जाती थी तो औपचारिक बातचीत हो जाती थी.

वो युवक मीरा को उसी घर की तरफ वाले हिस्से की बाड़ के अन्दर खड़ा दिखा था. उसने सोचा कोई रिश्तेदार होगा, वो क्यों सर फोड़े…मगर उसका वो घूरना मीरा के मन को विचलित कर रहा था. दूसरे दिन भी जब यही हुआ तो मीरा असमंजस की स्थिति में पहुँच गई. एक महीना पहले ही तो पास के ही शहर में उसकी सगाई हुई है, कहीं वो बिना बात बदनाम न हो जाए, सोचकर उसने अपना कचरा डालने का समय ही बदल दिया. अब वो रात को ही सारे काम निपटाकर कचरा बाहर डाल देती थी. दो दिन ठीक से गुजरे, तीसरे दिन जब वो कचरा डालने लगी तो उसने गली के उस तरफ वाली नाली के रास्ते एक काले साँप को उसी घर में घुसते देखा. मीरा ने घबराकर उन्हें सावधान करने के लिए आगे बढ़कर उस घर का दरवाजा पीटना शुरू कर दिया.

जल्दी ही पिछवाड़े की बत्ती जली और द्वार खुला तो मीरा सामने उसी युवक को देखकर हतप्रभ रह गई और घबराहट में साँप भूलकर उलटे पाँव वापस जाने ही लगी थी कि उस युवक ने उसका रास्ता रोककर पूछा-

“तुम मीरा हो न?”

अपना नाम उस युवक के मुँह से सुनकर मीरा का कलेजा धड़कने लगा. घबराई आवाज़ में उसने स्वीकारोक्ति में सिर हिलाते हुए प्रति प्रश्न किया-

“मगर मैं तो आपको नहीं जानती, आप कौन हैं, मुझे कैसे जानते हैं और मेरे नाम से आपको क्या लेना?” कहते हुए वो आगे बढ़ने लगी कि युवक ने उसका हाथ पकड़ लिया और चुप रहने का इशारा करते हुए अनुनय के स्वर में कहा-

“चिल्लाना मत मीरा प्लीज़!. मैं श्याम हूँ, तुम्हारा मंगेतर…यहाँ अपनी भाभी को लिवाने आया हूँ. उसी ने मुझे कल तुम्हारे इसी द्वार से बाहर निकलते समय तुम्हारी तरफ इशारा करके यह बात बताई थी. वैसे तो भाभी को लेने भाई साहब ही आते हैं मगर इस बार जानबूझकर मुझे भेजा ताकि मैं अपनी होने वाली दुल्हन को देख सकूँ.”

“हाय राम! आप यहाँ? मुझे जाने दीजिये…कोई देख लेगा.”

“इस अँधेरे में गली में कोई नहीं झाँकेगा…और घर में भी इत्तफाक से अभी कोई नहीं है.” कहते हुए उसने मीरा का हाथ चूम लिया.

“हाय राम! यह आप क्या कर रहे हैं…मुझे जाने दीजिये प्लीज़!”

“यह हाय राम! हाय राम! की रट क्यों लगा रखी है, मेरा नाम श्याम है, हाय श्याम! कहो तो छोड़ दूँगा.”

“हाय राम! मैं आपका नाम कैसे ले सकती हूँ…?”

“फिर वही राम!…मैं कहता हूँ न! जब तक श्याम नहीं कहोगी, जाने न दूँगा.”

“अच्छा श्याम, अब जाने दो, मुझे न देखकर अम्मा बाहर आ जाएगी.” मीरा का हाथ थर-थर काँपने लगा था.

“मीरा, परसों शाम तक मैं वापस चला जाऊँगा… यह तो इत्तफ़ाक ही है कि तुम यहाँ आ गई और मुझ खुशनसीब को यह अवसर मिल गया. कल सुबह तुम अपने उसी समय पर कचरा डालने के लिए बाहर निकलना, मैं तुम्हें वहीँ खड़ा मिलूँगा. तार की बाड़ के पास पत्थर में लिपटा हुआ कागज़ का पुर्जा होगा, तुम उठा लेना और पढ़कर जवाब लिखकर उसी तरीके से वहीँ रख देना. मेरी नज़र इसी तरफ ही लगी रहेगी.” मगर मैं यह पूछना तो भूल ही गया…तुम यहाँ किस प्रयोजन से आई थी…”

“वो… वो…इस तरफ साँप घुसा था…अरे! न जाने कहाँ चला गया होगा.”

“अच्छा वो… उसे तो मैंने ही तुम्हें बुलाने के लिए भेजा था…” कहकर हँसते हुए श्याम ने फिर से उसका हाथ चूम लिया.

मीरा का रोम-रोम पुलक और सिहरन से भर गया. वो हाथ छुड़ाकर तेज़ी से अपने घर में घुस गई.

रात भर वो अपने हाथ को बार बार सहलाती, चूमती और मन ही मन बुदबुदाती रही. “कितना सुदर्शन और सुन्दर है श्याम…मेरा श्याम, और

मैं उसकी मीरा… कितना सुखद अहसास…! काश! वे पल वहीँ ठहर जाते…” नींद तो अब श्याम ने चुरा ही ली थी…सुबह के इंतजार में करवटें बदलती रही.

मुँह-अँधेरे उठकर मीरा ने जल्दी-जल्दी कुछ कचरा इकठ्ठा किया, क्योंकि कल वाला तो वो रात में ही बाहर डाल चुकी थी. जैसे ही द्वार खोला, श्याम को वहीँ खड़े पाया. श्याम ने हवाई चुम्बन उछाला तो उसने शर्माकर पलकें झुका लीं. कनखियों से देखा, श्याम ने पत्थर में लिपटा हुआ कागज़ तार की बाड़ से बाहर सरका दिया और अन्दर चला गया.

मीरा ने इधर-उधर देखा और टहलते हुए वो पत्थर उठाकर वापस अन्दर आकर जल्दी से पत्थर से कागज़ अलग करके छिपा लिया.

अब बारी थी पत्र पढ़ने और उत्तर लिखने की…तो इसके लिए बाथरूम से सुरक्षित स्थान कौनसा हो सकता था भला…?

मीरा कोरा कागज़ और लेखनी हाथ में दबाकर इधर-उधर देखती हुई बाथरूम में बंद हो गई. जल्दी-जल्दी एक ही साँस में पूरा पत्र पढ़ लिया.

“प्यारी मीरा, बहुत बहुत प्यार

मैं जैसा तुम्हें बता चुका हूँ, परसों शाम तक यहाँ से चला जाऊँगा. मगर जाने से पहले एक बार पुनः तुम्हारा हाथ चूमना और जी भरकर सान्निध्य महसूस करना चाहता हूँ. फिर तो विवाह होने तक पत्रों से ही जी बहलाना पड़ेगा. यह गाँव तुम्हारा जाना पहचाना है और तुम बाहर के कार्यों के लिए भी घर से निकलती ही हो, तो कल दिन में कोई ऐसा स्थान तय करके बताना जहाँ हमें पहचाने जाने का कोई डर न हो.

बाकी बातें मिलकर ही होंगी.

सिर्फ तुम्हारा श्याम

यानी अपनी लैला का मजनू”

पत्र पढ़ते-पढ़ते मीरा के पूरे बदन में अजीब सी खुशनुमा खुमारी छाने लगी थी.

उसने उत्तर लिखना शुरू किया-

“मेरे श्याम, यह नहीं हो सकता…जिस गाँव/समाज के बुजुर्ग बच्चों की सगाई भी लड़के-लड़की की अनुपस्थिति में, बिना उनकी स्वीकृति लिए कर देते हों, उस समाज से इतने खुलेपन की उम्मीद तो की नहीं जा सकती और हमारा चोरी छिपे मिलना भी उचित नहीं. मन की मानकर मिलें तो भी तुम इस छोटे से शहर में नए हो तुम्हें तो कोई नहीं पहचान पाएगा मगर मैं कहीं भी आसानी से पहचान ली जाऊँगी. अतः अभी मिलने और प्यार जताने की उम्मीद छोड़ दो. सिर्फ छः महीने की तो बात है, तब तक इंतजार ही करना होगा. यह पत्र भी छिपकर लिख रही हूँ, ताकि किसी का उलाहना न सुनना पड़े.

और हाँ, तुम हमारे प्यार की तुलना लैला-मजनू अथवा अन्य किसी अन्य ऐतिहासिक प्रसिद्ध प्रेमी युगल से कभी मत करना…यह तो तुम जानते ही हो श्याम! कि जिन प्रेम-कहानियों को दुनिया प्यार का प्रतीक मानती चली आई है, उनमें से अधिकांश के नायक-नायिका प्रेम की परिणति यानी परिणय-सूत्र में बंधने से पहले ही जुदाई का ज़हर पीने को मजबूर कर दिए गए. विवाहोपरांत उनका जीवन कैसा होता, यह कोई नहीं बता सकता… लेकिन हमारी कहानी परिणय से शुरू होकर प्रेम की परिणिति तक पहुँचेगी और हमारी प्रेम-कहानी में जुदाई का कोई अध्याय नहीं होगा. यह मीरा अपने श्याम से जुदा होने के लिए नहीं बल्कि एक साथ जीने-मरने के लिए जन्मी है.”

सिर्फ तुम्हारी मीरा

छः महीने बीतते देर कहाँ लगती है… मीरा ने श्याम को तो तसल्ली दे दी मगर उसके लिए ये छः महीने छः युगों से कम न थे जैसे-तैसे समय बंजारे ने उसे श्याम से मिलन के पलों तक पहुँचा ही दिया और मीरा श्याम की दिल-दुनिया आबाद करने दुल्हन बनकर ससुराल आ गई.

परिवार में श्याम और उसके अलावा जेठ-जिठानी और उनके दो बच्चे थे. सास-ससुर छः वर्ष पहले ही एक एक करके काल कवलित हो चुके थे. वे किराने के थोक व्यापारी थे. शहर में उनकी छोटी सी दुकान थी, मगर इतनी कमाई हो जाती थी कि गुजर-बसर आसानी से हो सके. जेठानी मीना उसकी पूर्व परिचित थी अतः मीरा को परिवार के साथ सामंजस्य बिठाने में कोई परेशानी नहीं हुई. मीना को वो मायके के रिश्ते से दीदी कहकर ही संबोधित करती थी.

मीरा यह तो जानती थी कि जोड़े ऊपर से ही बनकर आते हैं मगर मिलन का माध्यम तो धरतीवासी ही बनते हैं न… अतः वो जेठ-जिठानी का अपने ऊपर उपकार मानती थी कि उन्होंने बिना दहेज के श्याम के लिए उसे पसंद किया था. मीरा के माँ-पिता भी इतनी आसानी से जाने पहचाने माध्यम से बेटी के लिए बराबरी का वर-घर पाकर निश्चिन्त हो गए थे.

दुकान का लेनदेन और रुपयों का हिसाब जेठजी जयंत रखते थे तो घर खर्च की बागडोर जिठानी मीना के हाथ में थी. शीघ्र ही मीना बड़ी सफाई से मीरा के साथ भावनात्मक रिश्ता बनाकर घर के सारे कार्य उसके माथे डालती गई.

वो बच्चों में व्यस्त रहने का दिखावा करती और दिन भर मीरा को

आदेश देती रहती. मीरा भी नासमझ तो थी नहीं, कुछ समय प्यार की मार सहती रही मगर जब वो गर्भवती हुई तो उसे कुछ आराम करने की आवश्यकता महसूस होने लगी. उन दिनों मध्यम वर्गीय घरों में घर के सारे काम महिलाओं को ही करने होते थे, कामवालियाँ रखने का न तो रिवाज था न ही हैसियत, अतः एक दिन उसने मीना से कहा कि दीदी मुझसे अब घर के सारे कार्य नहीं होते…आप कुछ सहायता कर दिया करें तो… मेरा शरीर अब कुछ आराम भी चाहता है.

मीरा का इस तरह सामने बोलने से मीना को अपना अपमान महसूस हुआ. तुरंत बोली-

“मीरा मैं भी लम्बे समय से इस घर को सँभाल रही हूँ, अब मुझे आराम करने का पूरा अधिकार है. मैंने तुम्हें मेहनती और समझदार मानकर ही अपनी देवरानी बनाया…क्या मैंने दो बच्चों को जन्म नहीं दिया? घर के कार्य तो तुम्हें करने ही पड़ेंगे.”

मीरा समझ गई कि मीना को देवरानी के रूप में नौकरानी चाहिए थी इसी कारण उसने उसे पसंद किया था…मगर वो भी अपना अधिकार हासिल करना बखूबी जानती थी, इस तरह शोषण कब तक सहती? रात में श्याम से इस बात का जिक्र किया तो श्याम भी चिंतित हो उठा पर घरेलू मामले में सीधे हस्तक्षेप तो कर नहीं सकता था तो मीरा से कह दिया कि उससे जितना बने करके बाकी छोड़ दिया करे. और मीरा ने दूसरे दिन ही बगावत का बिगुल बजा दिया. रसोई के काम आधे अधूरे छोड़कर आराम करने अपने कमरे में चली गई.

मीना को भला यह बात कैसे हज़म होती? बात जयंत के कानों तक पहुँची तो उसने श्याम को बुलाकर ऊँची आवाज़ में कहा-

“देखो श्याम, मीरा का इस तरह का व्यवहार एकदम अनुचित है. उसे यहाँ रहना है तो घर के कार्य करने ही पड़ेंगे. आखिर मीना ने भी बरसों इस घर को सँभाला है, तुम्हारी परवरिश की है…अब उसका आराम करने का पूरा अधिकार है.”

श्याम को भाई की दो टूक बात नहीं सुहाई, मगर वो मजबूर था. अगर गुस्से में अलग होने की बात कहेगा तो भाई साहब उसे खाली हाथ बाहर कर देंगे क्योंकि पिताजी की वसीयत के अनुसार उनके बाद उनकी संपत्ति यानी दुकान और मकान में दोनों भाई बराबरी के साझेदार हैं मगर यदि कोई भाई अलग होना चाहे तो उसे संपत्ति से वंचित होकर खाली हाथ घर छोड़ना पड़ेगा. वे चाहते थे कि दोनों भाई एक दूसरे का सुख दुःख बाँटते हुए आजीवन जुड़े रहें.

श्याम अब जान गया था कि उनकी स्थिति घर में नौकरों जैसी हो चुकी है. आज वो पछता रहा था कि भाई के कहने में आकर उसने अपनी पढ़ाई अधूरी क्यों छोड़ दी…वो स्वयं तो सारे कष्ट झेल लेता मगर मीरा पर अत्याचार होते वो नहीं देख सकता था, आखिर बहुत सोच-विचारकर उसने मीरा को प्रसव होने तक मायके भेजने का मन बनाया और भाई से इसके लिए अनुमति माँगी.

जयंत ने एक कुटिल मुस्कराहट के साथ अपनी स्वीकृति दे दी और श्याम ने मीरा को भारी मन से प्रतिदिन पत्र लिखने और सप्ताहांत में मिलने आते रहने के वादे के साथ उसे मायके भेज दिया.

और यहीं से उनके दर्द की दास्तान शुरू हो गई. मीरा प्रतिदिन नया सवेरा होते ही श्याम को पत्र लिखती और स्वयं डाकखाने जाकर लेटर-बाक्स में डालकर आती और श्याम का उत्तर मिलने का इंतजार करती मगर एक सप्ताह बीत जाने के बाद भी उसका कोई पत्र न पाकर उसका मन विचलित होने लगा. उसे समझ नहीं आ रहा था कि श्याम उसे इस तरह क्यों तड़पा रहा है…फिर सोचा, सप्ताहांत में मिलने आएगा तो जी भरकर शिकायत करेगी मगर दो सप्ताह बीत जाने के बाद भी न श्याम आया न ही उसका पत्र…अब मीरा करे तो क्या करे…तरह-तरह की आशंकाओं से उसका मन बिंधने लगा.

उसकी माँ उसे होने वाले बच्चे का वास्ता देकर उसे खुश रहने की नसीहत देती मगर मीरा की दशा बावलों जैसी हो गई थी उसे तन-बदन और खाने पीने की कोई सुध न रहती. उसे लगता कि नियति ने उन्हें भी बिछुड़ने के लिए ही मिलाया था… क्या परिणय के बाद भी उनका प्रेम खंडित हो जाएगा? यह सोचकर उसके मन में निराशा घर करने लगती और जीवन से मुक्त होने के विचार आते पर अपने पेट में अपने प्यार की निशानी पलती देखकर उन विचारों को झटक देती.

इधर श्याम की दशा भी उससे अलग न थी. वो भी मीरा के पत्र न पाकर दीवानों जैसी स्थिति में पहुँच चुका था. उन दिनों टेलीफोन देश में तो आ चुका था मगर बहुत रईस लोगों के घरों में ही होता था. श्याम आखिर मीरा का हालचाल कैसे जाने… एक बार जयंत से ससुराल जाने की बात की तो उसने बिफरकर कहा-

“कान खोलकर सुन लो श्याम, अगर इस घर में रहना है तो तुम्हें दूसरा विवाह करना पड़ेगा… तुम्हारी भाभी तुम्हारी सेवा नहीं कर सकती और उस विद्रोही लड़की मीरा को मैं इस घर में नहीं देखना चाहता. मैंने अपने एक मित्र दुर्गादास की लड़की रजनी से तुम्हारा रिश्ता तय कर दिया है, वे आर्थिक रूप से हमारी हैसियत के ही हैं और रजनी सुन्दर होने के साथ ही विनम्र और मेहनती भी है. तुम्हारे पास सोचने के लिए दो महीने हैं.

सुनकर श्याम को तो जैसे काठ मार गया. भाई साहब इस हद तक गिर सकते हैं इसपर उसे विश्वास ही नहीं हो रहा था. अब उसे आगे कदम बढ़ाने के लिए कोई मार्ग नहीं सूझ रहा था. उसके लिए मीरा से दूर रहना असंभव था. दूसरे विवाह का तो सवाल ही नहीं उठता था…घर छोड़कर खाली हाथ कहाँ जाएगा…उसे अपने स्वर्गवासी पिता पर भी बहुत क्रोध आया कि ऐसी वसीयत लिखते समय उन्हें यह विचार क्यों नहीं आया कि भाई साहब उसे धोखा भी दे सकते हैं.

ऐसे में उसे स्कूल के दिनों के एकमात्र हमदर्द मित्र अर्जुन की याद आ गई. उनके विचार आपस में बहुत मिलते थे. अर्जुन कक्षाओं में अपनी तिकड़म बाजी से वो छात्रों की हर समस्या का समाधान पलों में खोज लाता था. श्याम की उसने बहुत सहायता की थी. कभी कभी पढ़ाई के सिलसिले में दोनों का एक दूसरे के घर जाना भी हो जाता था मगर पिताजी के अक्सर बीमार रहने के कारण बाद जयंत ने ८ वीं पास करने के बाद श्याम की पढ़ाई छुड़वाकर सहयोग के लिए दुकान में लगा दिया था.

वो अर्जुन से भी गैर जाति का होने के कारण खार खाता था. श्याम से उसकी मित्रता उसे शुरू से ही पसंद नहीं थी अतः पढ़ाई छूटते ही उसकी अर्जुन से हमेशा के लिए दूरी बन गई थी.

श्याम ने एक बार फिर अपनी समस्या के समाधान के लिए अर्जुन से चुपचाप मिलने का मन बनाया और दुकान की छुट्टी के दिन उसके घर जाकर सारी कहानी सुनाकर अपनी समस्या उसके सामने रखी तो अर्जुन की बाँछें खिल गईं. वो चहककर बोल उठा-

“श्याम, तुम जिस लड़की की बात कर रहे हो वो मेरी प्रेमिका है. हम दोनों एक ही कालेज में पढ़ते थे. उसके घरवालों को जब हमारे प्रेम के बारे में पता चला तो उन्होंने उसकी पढ़ाई छुड़वा दी. उनको मेरी जाति पर ऐतराज़ था. उसके बाद हम मिल नहीं पाए न ही उसका कोई समाचार मिला. उसके घरवाले शायद इसी वजह से तुम्हारे बारे में सब जानते हुए भी उसका विवाह करने को तैयार होंगे. मैं स्वयं उसके लिए परेशान हूँ…हम दोनों की समस्या एक ही है दोस्त! अब जैसा मैं कहता हूँ वैसा करो.

रजनी से विवाह तुम्हें दिखावे के लिए करना होगा. बस किसी तरह एक बार उससे मिलकर सारी बातें बताकर इसके लिए तैयार करना. मैं अभी उससे न तो मिल सकता हूँ, न ही उसके घर जा सकता हूँ मगर विवाह के बाद तुम्हारे घर पर तीनों मिलकर आगे की योजना बनाएँगे. मेरे वहाँ छिपकर आने की युक्ति तुम्हें सोचनी होगी ताकि किसी को हमारी योजना की भनक भी न लगे.”

श्याम ने सोचा भी न था कि उसकी समस्या इतनी आसानी से सुलझ जाएगी. मगर उसके मन में यह शंका भी थी कि क्या ऐसा करना शास्त्र सम्मत होगा? अर्जुन से कहने पर उसने कहा- मैं जानता हूँ मित्र, मगर मेरी बात अभी पूरी नहीं हुई… “यह तो तुम जानते हो न कि सात फेरों के सिवा (जो सात वचनों के साथ संपन्न होते हैं) विवाह पूर्ण नहीं माना जाता…”

“हाँ …तो…”

“बस वही…कि जब तुम साम, दाम और भेद नीति में सफल नहीं हुए तो अब तुम्हें दंड नीति अपनानी होगी…यानी तुम्हें विवाह का केवल अभिनय करना है. ठीक फेरों के समय रजनी बेहोश होने का नाटक करेगी और तुम्हारे भाई और रजनी के पिता किसी भी तरह विवाह रोकने न देंगे और उसी हालात में एकतरफा मंत्रोच्चार के साथ विवाह संपन्न हो जाएगा, जो शास्त्रों के अनुसार अधूरा ही माना जाएगा.”

“यह बात तो तुमने सोलह आने सत्य कही अर्जुन…मैं आज ही रजनी से मिलने के लिए भाई साहब से बात करूँगा.”

उसी दिन श्याम ने जयंत से एक बार रजनी से मिलने की अनुमति माँगी. वो अपनी बात बनती देख इसके लिए सहर्ष तैयार हो गया और दुर्गादास से कहकर एक मंदिर में उनके मिलने की व्यवस्था करवा दी. श्याम ने रजनी को संक्षेप में सारी बातें समझाकर कहा-

“हम विवाह के बाद सबके सामने पति-पत्नी होने का अभिनय करेंगे और कमरे में भाई-बहन की तरह रहकर परिस्थितियों के अनुकूल होने का इंतजार करेंगे.”

रजनी तो अर्जुन के अलावा कहीं भी विवाह होने पर जान देने की योजना मन ही मन बना चुकी थी, अब अचानक खुशियों का खज़ाना अपनी झोली में गिरते देख, ख़ुशी से खिल उठी. वो अपना प्यार पाने के लिए यह अभिनय करने के लिए सहर्ष तैयार हो गई.

दो माह में ही उनका अपूर्ण विवाह उनकी सोची हुई युक्ति से संपन्न हो गया, जो उनके पवित्र उद्देश्य की पूर्णता की साक्षी थी. श्याम का मकान दो मंजिला था. नीचे बैठक और रसोईघर था तथा बीचों-बीच ऊपर जाने के लिए सीढ़ियाँ थीं जो दोनों भाइयों के कमरों को विभाजित करती थीं. उसके कमरे की बालकनी से पिछवाड़े की गली दिखाई देती थी, जो अक्सर सुनसान ही रहती थी. विवाह होने के दो दिन बाद ही अर्जुन ने दुकान पर श्याम से मिलकर उसके घर आने के बारे में बात की. श्याम ने कहा कि वो देर रात को पिछवाड़े की गली से उसके घर तक आए. वो बालकनी से रस्सी बाँधकर लटका देगा और वो चढ़कर ऊपर पहुँच जाएगा. किसी को कानोंकान खबर भी न होगी. और उसी रात श्याम के कमरे में दो बिछड़े प्रेमी आमने-सामने खड़े मौन भाषा में अपनी ख़ुशी का इज़हार कर रहे थे.

सारी रात आगे की योजना पर विचार-विमर्श होता रहा. जब श्याम ने बताया कि इतवार को दुकान बंद होने के कारण सभी देर तक सोते रहते हैं तो तय हुआ कि हर शनिवार की रात गाँव जाने वाली आखिरी बस से वो इसी रास्ते से मीरा के पास जाकर सुबह पहली बस से वापस आया करेगा तब तक अर्जुन अपनी मर्यादा का पालन करते हुए रजनी के पास रहेगा. वो स्नातक की पढ़ाई पूरी कर चुका था और अब अच्छी सी नौकरी के लिए आवेदन और प्रशिक्षण में लगभग एक वर्ष का समय लग सकता था तब तक यही क्रम जारी रहेगा. उसकी नौकरी लगते ही वो रजनी से कोर्ट मैरिज कर लेगा और किसी भी तरीके से रुपयों का इंतजाम करके श्याम के लिए उसके ससुराल के गाँव में ही दुकान खुलवा देगा ताकि वो भाई से अलग रहकर अपना पुश्तैनी कार्य शुरू कर सके.

पैसों की बात सुनते ही रजनी बोल पड़ी-

“मेरे पास जो जेवर हैं ये सभी मैं श्याम भैया के नाम करती हूँ.”

श्याम के विरोध करने पर उसने कहा-

“विधाता ने शायद सोच-समझकर ही हमको एक दूसरे से मिलाया है भैया… कर्ता तो वही एक है मगर जब मिलन-यज्ञ हमारे द्वारा भौतिक साधनों और सहयोग के आदान प्रदान से संभव है तो मैं भी इसमें आहुति अवश्य दूँगी. कुदरत ने मेरा सबसे कीमती जेवर मुझे वापस किया है तो उसके आगे ये सब तुच्छ हैं. अगर हममें से एक ने भी अपने साथी से जुदा होकर अपनी जान दी होती तो बाकी तीन जीवन भी मटियामेट हो जाते.”

“मगर बहन, कोर्ट मैरिज से पहले तुम्हें मेरे साथ गाँव चलना पड़ेगा जहाँ से मैं विधिवत तुम्हारा कन्यादान करके अर्जुन के साथ विदा करूँगा…” श्याम ने भावुक होते हुए कहा.

तीनों की आँखों में ख़ुशी के आँसू थे.

ooo ooo ooo

उस दिन रात को १२ बजे जब सब गहरी नींद सोए थे, मीरा के घर के मुख्य द्वार पर दस्तक हुई. आगे के कमरे में मीरा ही सोती थी, वो घबराकर सोचने लगी, इस समय कौन आ सकता है…सब गहरी नींद सोए थे तो उसने किसी को नहीं उठाया और डरते-डरते द्वार की दरार से झाँका तो अस्पष्ट सा एक साया दिखाई दिया. उसने पूछा-

“कौन है बाहर?”

“मैं श्याम हूँ मीरा, द्वार खोलो. मीरा की आवाज़ पहचानकर श्याम ने कहा.”

श्याम तो मीरा की नस-नस में समाए हुए थे, उसने श्याम की आवाज़ पहचानकर तुरंत द्वार खोल दिया और हर्ष मिश्रित आश्चर्य से उसे देखती रह गई.

श्याम ने उसे गले लगाकर प्यार किया और घरवालों को इस समय न उठाने के लिए कहा. फिर अपनी सारी कहानी विस्तार से उसे कह सुनाई. उन्हें एक-दूसरे के पत्र न मिलने का कारण भी समझ में आ गया कि जयंत की डाकिये से मिली भगत होगी. मीरा तो खुशी में दीवानी हुई जा रही थी, ३ – ४ घंटे किस तरह गुज़र गए पता ही न चला. श्याम ने हर सप्ताह इसी तरह आते रहने का वादा करके विदा ली और वापस चला गया.

घर में श्याम के आने की किसी को भनक भी न लगी पर सुबह होते ही मीरा ने ख़ुशी से झूमते हुए माँ को सारी बात बता दी. माँ ने उसे गले लगाकर कहा-

बेटी, मेरा मन कहता था कि श्याम ज़रूर आएगा. प्यार अगर सच्चा है तो कुदरत भी उन जोड़ों के लिए सदय हो जाती है.

समय गुजरता रहा. निश्चित तिथि पर मीरा ने सुन्दर सी बच्ची को जन्म दिया, मीरा के चेहरे पर इस समय श्याम की अनुपस्थिति से उदासी छाई हुई थी. उसने तय किया कि बिटिया का नामकरण श्याम की उपस्थिति में ही होगा. सप्ताहांत में श्याम के आने पर आधी रात को बेटी को उन्होंने अपने नामों के प्रथम अक्षर को मिलाकर ‘मीशा’ नाम दिया.

उधर रजनी ने अपनी जी तोड़ मेहनत से मीना का दिल जीत लिया था और अपना प्रेम पाने के लिए कर्मरत योगी की तरह अपनी भूमिका निभा रही थी. एक वर्ष का समय उन चारों के सब्र का इम्तिहान लेते हुए गुजर गया.

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उस दिन रविवार को जब जयंत और मीना सोकर उठे तो नियमानुसार रजनी को रसोई में न देखकर मीना को आश्चर्य हुआ. चूल्हा अभी तक न जला था, न ही बच्चों के दूध-नाश्ते की कोई तैयारी हुई थी.

उसने भुनभुनाते हुए रजनी के कमरे तक जाकर बाहर से ही आवाज़ लगाई तो कोई जवाब न पाकर गुस्से मे दरवाजा ठोका तो वो खुल गया और मीना गिरते-गिरते बची. मगर कमरा खाली देखकर वो हैरान रह गई और घबराकर जोर से जयंत को आवाजें देने लगी. जयंत तुरंत वहाँ पहुँचा तो वो भी विस्मित रह गया. अन्दर जाकर खिड़की का पर्दा हटाया तो उसे बालकनी से बंधी गाँठें लगी हुई रस्सी लटकती दिखाई दी. अभी वो इस पहेली का हल खोज ही रहा था कि मीना ने बिस्तर पर तकिये के नीचे से एक पत्र निकालकर उसके हाथ में दे दिया.

लिखा था-

आदरणीय भाई साहब, मैं रजनी बहन के साथ इस घर को छोड़कर हमेशा के लिए अपनी मीरा के पास जा रहा हूँ. तुम इसे मेरा पलायन न समझना…मैं चाहता तो किसी भी तरीके से अपना अधिकार ले सकता था, मगर मैं अपने स्वर्गवासी सम्मानित माँ-पिता द्वारा की गई वसीयत को चुनौती नहीं दे सकता और नहीं चाहता की रजनी बहन को उसके प्यार तक पहुँचाने में कोई व्यवधान उपस्थित करे …आपने एक परिणीता को पति से जुदा करने का जो अपराध किया है उसका दंड कुदरत आपको अवश्य देगी.

-आपका नालायक भाई श्याम

-कल्पना रामानी, नवी मुंबई

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*कल्पना रामानी

परिचय- नाम-कल्पना रामानी जन्म तिथि-६ जून १९५१ जन्म-स्थान उज्जैन (मध्य प्रदेश) वर्तमान निवास-नवी मुंबई शिक्षा-हाई स्कूल आत्म कथ्य- औपचारिक शिक्षा प्राप्त करने के बाद मेरे साहित्य प्रेम ने निरंतर पढ़ते रहने के अभ्यास में रखा। परिवार की देखभाल के व्यस्त समय से मुक्ति पाकर मेरा साहित्य प्रेम लेखन की ओर मुड़ा और कंप्यूटर से जुड़ने के बाद मेरी काव्य कला को देश विदेश में पहचान और सराहना मिली । मेरी गीत, गजल, दोहे कुण्डलिया आदि छंद-रचनाओं में विशेष रुचि है और रचनाएँ पत्र पत्रिकाओं और अंतर्जाल पर प्रकाशित होती रहती हैं। वर्तमान में वेब की प्रतिष्ठित पत्रिका ‘अभिव्यक्ति-अनुभूति’ की उप संपादक। प्रकाशित कृतियाँ- नवगीत संग्रह “हौसलों के पंख”।(पूर्णिमा जी द्वारा नवांकुर पुरस्कार व सम्मान प्राप्त) एक गज़ल तथा गीत-नवगीत संग्रह प्रकाशनाधीन। ईमेल- [email protected]