बेटी बचाएँ
ज़मीं से उठाकर फ़लक पर बिठाएँ।
अहम लक्ष्य हो, आज बेटी बचाएँ।
जहाँ घर-चमन में, चहकती है बेटी
बहा करतीं उस घर, महकती हवाएँ।
क़तल बेटियाँ कर, जनम से ही पहले
धरा को न खुद ही, रसातल दिखाएँ।
बहन-बेटी होती सदा पूजिता है
सपूतों को अपने, सबक यह सिखाएँ।
पढ़ाती जो सद्भाव का पाठ जग को
उसे बंधु! बेटे बराबर पढ़ाएँ।
न हो जननियों, अब सुता-भ्रूण हत्या
वचन देके खुद को अडिग हो निभाएँ।
है सच “कल्पना” बेटी बेटों से बढ़कर
कि अब भेद का भूत, भव से भगाएँ।
-कल्पना रामानी,नवी मुम्बई