कहानी

रिश्तों का पोस्टमार्टम, भाग-1

रिश्तों का पोस्टमार्टम, भाग-1
“चलो कपड़े पहनते हैं अब इश्क़ पूरा हुआ” छी…..
“बस यही रह गया है प्यार-मुहब्बत का पर्याय।” कहते हुये निशा ने किताबों को पास रखी मेज़ पर पटका। मैंने पीछे पलटकर देखा तो यो लगा मानो सुपरफास्ट ट्रेन का बेक़ाबू इन्जन मेरी ओर दौड़ा चला आ रहा है जिसे मैं असहाय की तरह देखने के अतिरिक्त कुछ और नहीं कर सकता था।
बस लड़कों को लड़कियों से मात्र एक ही चीज की दरकार होती है उसे लिया फिर निकल पड़े अगले शिकार के लिये। खून खौलता है मेरा, ऑल मैन्स आर डॉग।” ऐसा कहकर निशा ने मेरी तरफ़ देखा।
मैंने अपनी पढ़ाई वहीं पर रोक दी और चुपचाप उठा। मिट्टी के घड़े से एक गिलास पानी भरकर निशा की ओर बढ़ाते हुये कहा “शांत! गदाधारी भीम, शांत! हुआ क्या…?”
कुछ नहीं बस, पहले ही समझाया था रश्मी को, अब सच्ची मुहब्बत, लैला-मजनू, हीर-राँझे नहीं होते। होती है तो सिर्फ़ विछिप्त मानसिक भूख जो पुष्प को स्नेह करने के स्थान पर स्पर्श से शुरू होकर कुचल देने तक ही रहती है। फिर क्या? फ़िर किसी दूसरे फूल की तलाश और वही, कभी न टूटने वाले क्रम। लेकिन नहीं मानी। कहती थी कि हमारी मुहब्बत का इतिहास लिखा जायेगा। लो लिख गया इतिहास।अब रोती घूम रहीं है।
मुझे समझ नहीं आ रहा था कि निशा किससे बात कर रही है, हमसे या अपनेआप से…?

निशा जो एक सिविल इंजीनियरिंग की पढी हुयी छात्रा थी और मैं पॉलिटिकल साइंस का विद्यार्थी। अगल बगल के कमरों में रहते थे। कहा जाता है कि सिविल ब्रांच में लड़कियां बहुत कम होती हैं और जो होती हैं वो भी ऐसी मानो ऊपर वाले ने गलती से उन्हें लड़की बना दिया हो। लेकिन निशा इसके विपरीत थी। उसका तराशा हुआ बदन, ऐसा लगता था किसी रचनाकार की सर्वश्रेष्ठ रचना हा और मैं एक साधारण सा दिखने वाला छात्र।

अंग्रेजी में महारथ हासिल करने वाली निशा हिंदी में धाराप्रवाह बोले जा रही थी और मैं मूकदर्शक बना देखता जा रहा था। लेक़िन हुआ क्या, बताओगी…? मैने पूछा
देखो सौरभ मेरा दिमाग़ बहुत ख़राब है, ऊपर से भूख भी लगी है, तुम पोडिकल ( मेरी पॉलिटिकल साइंस को पोडिकल कहती थी) साइंस वाले कुछ रखते हो अपने खाने के लिये….?
रात को बर्गर बनाया था कुछ सामान बचा है, कहो तो बना दूँ, मैंने धीरे से कहा।
बना दो और क्या, या फिर एप्लिकेशन लिखकर देनी होगी? निशा का यही अपनापन तो था जो किसी का भी दिल जीत लेता था।

मेरे पास बत्ती वाला स्टोव था जिसपर मै खाना बनाता था जो एक सामान्य आय वाले व्यक्ति के बेटे के लिए पर्याप्त था। “अग़र गुस्सा कुछ कम हुआ हो तो पूरी बात बताओ, मैंने स्टोव जलाते हुये पूछा।”

तुम कभी किताबों से बाहर भी निकला करो तो पता चले कि कोई और भी दुनियां होती है। पर नहीं, किताबों की दुनियां में हीं घुसे रहते हो। बाहर देखो कितने लोग हैं जिनको तुम्हरी जरूरत है पर नहीं, दुनियां की सारी पढाई को खत्म करके ही दम लेंगें। साला किसी को इंसाफ चाहिये तो वो मर जाये पर जनाब को कोई फर्क ही नहीं पड़ता।” निशा ने कहा। यूँ लग रहा था अब सारा गुस्सा मेरे ऊपर ही निकलने वाला है।
“लो बन गया बर्गर! सौरभ स्पेशल, खाकर देखो और बताओ कैसा बना ह? मैने बात को बदलते हुये कहा। कैसा क्या बना है सौरभ बाबू? खाने के लिये भूख चाहिये भूख, जो इंसाफ के लिये लड़कर ही मिलती है।” कहते हुये निशा ने बर्गर खाना शुरू किया

कभी कभी तो लगता था उसको पॉलिटिकल सांइस लेना था और मुझे सिविल लेकिन मुझे आज भी याद है जब मै और निशा पहली बार बनारस के चैरासी घाट पर मिले थे। मुझे बीएचयू में पॉलिटिकल सांइस में दाखिला का लेना था और उसे पीएचडी का। इत्तेफाकन हम एक ही ट्रेन शिवगंगा एक्सप्रेस से बनारस पहुँचे वो दिल्ली से आयी थी और मैं कानपुर से चढा था पर एक दूसरे से बिलकुल अन्जान। इंजन में खराबी के कारण ट्रेन 11 घण्टे देर से पहुँची। मंडुवाडीह स्टेशन से कालेज पहुँचते पहुँचते लगभग दिन ढल ही चुका था। भीतर गये तो पता चला कि प्रक्रिया जानने के लिये अगले दिन तक रूकना है।

“धत तेरे की! आज ही सारी मुसीबत होनी थी। चल कोई नहीं कल देखते हैं।” निशा ने मुँह बनाकर खुद से कहा और मैं ये सोंचकर परेशान था कि मेरा पर्स और मोबाइल ट्रेन में कहां खो गया। वैसे तो ट्रेन जब कानपुर के नज़दीक पहुँचती है तो जी आर पी एफ वाले चिल्ला-चिल्ला कर कहते हैं कि अपने अपने सामान का ध्यान रखना कानपुर आने वाला है पर यहां तो कानपुर वाले का ही आधा सामान खो गया था।

मेरे बासी तरोई से मुरझाये चेहरे को देखकर निशा ने कहा “क्या हुआ? एडमिशन हो जायेगा आज देर ही तो हुयी है। कल सेम चैनल पर हाज़िर होना है, वो भी टाइम से।” मैंने बिना कुछ बोले हाँ मे सर हिलाया
“अभी जाकर मस्त होटल में कमरा लेते हैं फिर देखतें हैं बनारस के नज़ारे।” निशा खुद से ही बात किये जा रही थी। “अच्छा गुरू ये बताओ कौन सी ब्रांच में एडमिशन के लिये आये हो?” “पॉलिटिकल सांइस” मैने कहा
“तो कोई है बनारस में या बस सर उठाया और चले आये। बाबू ये ढगों की नगरी बनारस है। कुछ पढे और सुने हो?” निशा ने फिर कहा

“मुझे ये समझ में नहीं आ रहा था ये लड़की है या विविध भारती। बोले ही चली जा रही है। बकर-बकर इसका मुँह भी दर्द नहीं होता?” मैनें बुदबुदाते हुये खुद से कहा।
“देखिये! मुझे नहीं पता आप मेरे बारे में क्या सोंचती हों? पर मेरा मूड बहुत खराब है। एक तो मेरा सामान खो गया ऊपर से आप बोले ही चली जा रही हैं।” मैने खिसियाते हुए कहा
“ओह तो ऐ बात है! .गुरू जी पहले ही ढगी का शिकार तो नहीं हो गये?” निशा नें अटपटे अन्दाज़ में कहा।
“रूकने की जुगाड़ है यहां कि वो भी राम भरोसे।” फिर उसने कहा
“पता नहीं। अस्सी घाट के बारे में सुना है, वहीं रात बिता लेंगें। फिर देखते हैं।” मैंने उत्तर दिया।
“चैरासी घाट के बारे में जानते हो?” निशा ने उसी अन्दाज़ में पूँछा….क्रमशः (कविता सिंह सौरभ दीक्षित मानस)

कविता सिंह

पति - श्री योगेश सिंह माता - श्रीमति कलावती सिंह पिता - श्री शैलेन्द्र सिंह जन्मतिथि - 2 जुलाई शिक्षा - एम. ए. हिंदी एवं राजनीति विज्ञान, बी. एड. व्यवसाय - डायरेक्टर ( समीक्षा कोचिंग) अभिरूचि - शिक्षण, लेखन एव समाज सेवा संयोजन - बनारसिया mail id : [email protected]