व्यंग्य – भ्रष्टाचार हमारे खून में है!
अरे भाई! आप भी कैसी बात करते हैं ? भ्रष्टाचार दूर करो ! भ्रष्टाचार दूर करो !! ये तीन शब्द सुनते -सुनते मेरे तो कान पक गए। जब कोई चीज पक जाती है , खेत से ,ठेले से ,बाज़ार से लेकर खाई ही जाती है। तो कानों को भी कोई न कोई खाता ही होगा। जब कोई कान खायेगा , तो
हारकर कहना ही पड़ेगा। ‘बहुत हो गया, मेरे कान मत खा।’ इसलिए अब यह कहना ही बन्द हो गया कि भ्रष्टाचार दूर करो।
यह स्वतः समझने योग्य है कि जो चीज हमारे जटिलता से बुने, बने , ठने, घने , ऐंठ में तने डी. एन. ए. में जन्म से ही समाई हुई है, उसे कैसे अलग कर सकते हैं। बस समझने की बात मात्र इतनी -सी है कि हमें वह शुभ अवसर ,मौका , मुहूर्त , शुभ घड़ी भी तो मिलनी परम आवश्यक है , जब हम भ्रष्टाचार के खट्टे -मीठे अचार का रसास्वादन कर सकें। जो चीज बारहों मास, चौबीस घण्टे , प्रति क्षण हमारे खून में गंगा -जमुना की तरह बह रही है , उसे कहीं लेने जाने के लिए कोई कष्ट करने की आवश्यकता ही नहीं है। जरा -सी गर्दन उधर घुमाई और हम अपने उच्च आसन से स्वतः च्युत होकर भ्रष्ट आचरण में अवतरित (नीचे गिरना) हो गए।
हम माननीय मंत्री , सांसद , विधायक , अधिकारी, लेखाकार, ठेकेदार , पंचायत सेक्रेटरी, अध्यापक , कार्यालय- अधीक्षक, वरिष्ठ लिपिक, लिपिक , सेक्शन ऑफिसर , निदेशक, सहायक /संयुक्त निदेशक , सचिव , विशेष सचिव , महा सचिव , अध्यक्ष , मेयर , चेयर पर्सन, ग्राम प्रधान, राजनेता , समाज सुधारक , धर्म -पंडित आदि ऐसे ही हज़ारों पदों से अवतरित (अर्थात पद से पतित , मानवता से पतित) होकर मुखौटा लगाकर भ्रष्टता के अचार का स्वाद चटखारे ले लेकर करने लगे। खून में समाई चीज की लालामी कब बाहर आ जायेगी , कुछ नहीं कहा जा सकता।
चारों ओर एक ही नारा , एक ही स्लोगन कानों में बजता है , तो ऐसा लगता है कि मुझे छोड़कर सभी चोर , डाकू, छिनार – छिनरे, गबनखोर, रिश्वतखोर , जालसाज , ठग , लुटेरे, राहजन, जेबकट और शातिर हैं। मैं ही अकेला हूँ, जो दूध में धुला हुआ हूँ। नैतिकता की पावन भागीरथी में तो मैं नित्य गोते लगाता हूँ। पर क्या करूँ , मजबूरी का नाम तो है ही मज़बूरी। वहाँ तो इस पवित्र भ्रष्टाचार से है किलोमीटरों की दूरी।(अब मापन के पैमाने बदल गए हैं , इसलिए कोसों की नहीं ।) जब तक हम इसकी धारा में नहा नहीं पाए , तब तक हम निर्मलता के निर्मलानन्द हैं।
संत आसाराम जैसे न जाने कितने ‘महापुरुष ‘ और ‘महानारियाँ’ कुछ सलाखों के अंदर , कुछ बाहर , कुछ परदे के भीतर , कुछ बाहर , कुछ
खुलेमन से खुलेआम -‘ भ्रष्टाचार की नदी में अभिषेक कर रहे हैं। कुछ की पूँछें उठ चुकी हैं , कुछ उठने वाली हैं। बाप -बेटे , घर के सभी सदस्य नाकों तक डूब गए । जमाने ने देखा । मगर भारतीय आस्था की गहनता भी सराहनीय है कि उनके तथाकथित भक्त उनकी भक्ति
में निरन्तर अखंड कीर्तन करते हुएआज भी देखे जा सकते हैं। अंधी आस्था के पीछे देश की न्याय व्यवस्था को चुनौती देने वाली यह भक्ति इस देश में ही सम्भव है। भक्त हो तो ऐसा! चमत्कारिक भक्ति के हजारों लाखों नमूने इस देश के नगरों और गाँओं में एक नहीं अनेक मिल जाएंगे।
हमेंअपना काम निकालने के हजारों सूत्र और आचार -संहिताएं रटी पड़ी हैं। रिश्वत लो खुलेआम । रिश्वत देकर छूट जाओ। इसमें क्या बुरा है ? अब यही आम जन सभ्यता का एक विशेष महत्वपूर्ण बिंदु है। जहाँ कहीं भी खतरे का कोई चिह्न ही नहीं लगा। सौ दिन में एक दिन पकड़े गए तो क्या? लिया है तो देंगे भी। इधर ‘ दिया’ का दिया जला और अंधकार खत्म! इसलिए अब सब जगह कोर्ट , कचहरी, बस , ट्रेन, सड़क, चौराहा , थाना , चौकी, स्कूल , कालेज सर्वत्र रिश्वत एक अनिवार्य तत्त्व के रूप में विद्यमान है। जो नहीं लेता , वह आज के युग का महामूर्ख है। मान्यता यह है कि जब तक ऊपरी कमाई न हो , तब तक नौकरी भी क्या नौकरी है ? ऊपर से नीचे तक जिसकी भी पूंछ उठाओ ,मादा ही निकलेगा।
‘मैं न कहूँ तेरी, तू न कहे मेरी।’ का नीतिगत सिद्धात अनिवार्यतः पालनीय है। तुम भी खुश , हम भी खुश।
लाइन में लगने से हमारी प्रतिष्ठा प्रभावित होती है। हमें लोग आम आदमी समझने लगते हैं , इसलिए हेकड़ी से धक्का देते हुए पहले काम करा लेना , टिकिट ले लेना, ज्यादा पैसा देकर काम कराना: हमारी आन, मान और शान का प्रतीक है। भ्रष्टाचार के सहस्र मुख , लाखों चरण और
करोड़ों हाथ हैं। असंख्य नेत्र, श्रोत, नाक और मुँह हैं।वह सर्वत्र व्याप्त परम् सत्ता का विराट स्वरूप है। ये मत पूछिए कि कहाँ नहीं है! थल के तल पर विद्यमान *भ्रष्टाचार* की यह सत्ता, जिसे स्वीकार नहीं , वह इस असरदार संसार में रहने का पात्र नहीं है। जीना है तो समय के साथ चलिए , भ्रष्ट बनिये! भ्रष्ट बनिए!! भ्रष्ट बनिये।
— डॉ. भगवत स्वरूप ‘शुभम’