सरकार की सौतेली औलाद
सरकार की नौकरी तो सभी करना चाहते हैं! फिर चाहें भी क्यों ना सरकार भी अपने कर्मचारियों को अपनी औलाद की तहर मानती है, मेहनत से कई गुना ज्यादा सभी को भुगतान भी करती है और होली, दिवाली, अन्य तीज त्यौंहारों पर उपहार स्वरूप कुछ न भेंट ही करती रहती है। किसी ने खूब ही कहा है कि- खुदा जब हुस्न देता है नज़ाकत आ ही जाती है! जी हां सरकार की नौकरी करने के बाद नवाबी तो लाजमी है फिर ऐसी स्थिति में काम करना कुछ शोभा नही देता और ऊपर से सरकार की तमाम तरह की योजनाएं प्रदेश, जिले, नगर पंचायत, ग्राम पंचायत के स्तर के सभी लोगों तक पहुंचाना यदि सरकार के ये पूत इन कामों में लग जायेंगे तो हिल स्टेशन पर जाना, देशाटन करना, दोस्तों के साथ बीच पर जाना, चौपाटी पर पार्टी करना इत्यादि सब छूट जायेगें, जब ये काम करेगें तो अपने बर्चस्व और वैभव का प्रदर्शन कब करेगें और काम के बोझ में दबे रहेगे तो बाहर के लोग इनको जान भी नही पायेगें कि ये भी सरकार की औलाद हैं! ये जानते है कि चित भी मेरा और पट भी मेरा अपने निर्धारित समय मे लक्ष्मीमैया निर्धारित स्थान पर आ ही जायेंगी, और ये यह भी जानते हैं कि जनता का भला कभी होने वाला नही हैं, क्योंकि ये औलाद अपने आप को राजपूत समझती हैं जी हां ! जिसका राज उसी के पूत ये जानते हैं कि हमारे साथ अचानक कुछ भी नही हो सकता है यदि इनके कार्य व्यवहार से इनको कोई प्रतिकूल प्रविष्टि भी मिलेगी तो इनका कुछ होने वाला नही है जहां पूरा वेतन मिलता था वहां आधा तो मिलेगा ही और आधा वेतन भी ज्यादा दिनों तक नही मिलेगा कुछ ही दिनों में सोलह दूना आठ बताकर गाड़ी को पटरी पर ले ही आतें हैं इनकी गाड़ी पटरी पर इसलिये आ जाती है क्योंकि इनका इंजन भी तो मिलावटी इंधन से चलता है, अधिकतर राजपूतों को देखा गया है कि इनके पास समय का अभाव रहता है ये कहीं भी समय से नही पहुँच पाते हैं और न ही कोई काम निर्धारित समय में कर पाते हैं ये एकदम वाजिद अलीशाह की तहर होते है ये विन्दास होकर अपनी दिनचर्या निपटाते हैं और समय आने पर एक दम से आपाधापी मचा देते है इधर का उधर, उधर का इधर करके अपने कामों पर विजय पा ही लेते है! सरकार भी अब जान चुकी है ये मेरे पूत निकम्मे होते जा रहे हैं, तो जनता से जुडे तमाम विभागों में सरकार ने संविदा कर्मचारियों को रखना शुरू कर दिया जिस विभाग में संविदा वर्ग के जीव पाये जाते हैं उन विभागों के अधिकारी, कर्मचारी, एकदम निश्चिन्त हो जाते है, ये जीव एक दम उसी तरह के होते है जैसे की कोल्हू के बैल, इनसे गन्ने का रस निकालो चाहे सरसों का तेल, और चाहे रहट में जोतते रहो, बस इनके मुंह के सामने चारा डालते रहो, और पीछे से पैना चलाते रहो ये बडे आराम से रातोदिन अपने काम में लगे रहेंगें! फिर लगे भी क्यों न! क्योंकि मदरसे की दिवार पर बैठा कौवा भी अपने आपको मौलवी समझने लगता है उसी प्रकार से ये जीव राजपूतों के साथ रहकर अपने आपको राजपूत ही समझने लगते हैं, इनके हाकिम भी इनका खूब दोहन करते हैं! चाहे वो मानसिक रूप से हो या शारीरिक रूप से हो! अगर इन जीवों से कह दिया जाये कि तुमको एक घंटे में आसमान के तारे गिन कर बताना है! तो ये गिनना शुरू कर देगें! कहीं गलती से भी मुंह से निकला की ये सम्भव नही तो तुरन्त दुत्कार दिये जायेंगें, वहीं दूसरी ओर यदि देखा जाये कि यदि इस प्रकार के जीव कार्यालयों में न हों तो जनता का कुछ भला होनें वाला नही है, इन्ही के माध्यम से सरकार की तमाम योजनाएं जनता तक पहुंचती हैं, फिर भी इनके साथ बिना पति के विधवां वाला ही हाल किया जाता है जो देखों वो ही इन पर बुरी नजर डालता है कहीं और के छाये काले बादल इन्ही जीवों पर मूसलाधार बरसते हैं! ये शारीरिक और मानसिक पीड़ा इस लिये सहन करते हैं क्योंकि इनको भी तो राजपूत! बनना है इस प्रकार के जीवों का सारा जीवन इसी उठा पटक में बीत जाता है और अन्त में इन्हे न खुदा ही मिलता है और न ही मिशाले सनम।
हमारी सरकार भी संविदा वर्ग के जीवों के साथ सौतेला व्यवहार कर रही है और इनको झुनझुना देकर रातों दिन इनसे काम करवाती है, समान कार्य, समान वेतन, श्रम विभाग का कवच, तहर – तरह के प्रलोभन समय – समय पर देती रहती है, ये जीव इसी में फूल कर कुप्पा होते जाते हैं। और इनको ऐसा कार्य सौंपा जाता है जो कि राजपूतों से कभी नही हो सकता है जैसे कि चलनी में पानी भरना, किसानों को सम्मान देना, घर घर में उजाला करना एक- एक पात्र लाभार्थी को चिहिन्त करके सरकार तक पहुंचाना ये सारे काम ये जीव ही करते है और ईनाम राजपूतों को मिलता है! फिर भी इनके साथ ऐसा व्यवहार किया जाता है जैसे ये जीव अमावस्या की रात में पैदा हुये हो! और राजपूत पूर्णिमा की रात में जन्मे है! इनको हमेसा एक अंधेरे में रखता जाता है यह कहकर कि यदि तुम्हार कार्य ही ठीक नही होगा तो तुमको क्या करेगें रखकर, कहीं कहीं पर तो यह भी देखने को मिलता है सारी गलती राजपूतों की ही होती है फिर मारे ये ही जाते है और इस दरमियान कहीं इनके मुंह से आह निकली तो इनके लिये और भी बुरा! इस कसम कस में ये रोज जीते और मरते रहते हैं, वहीं दूसरी ओर राजपूतों के घर समय पर लक्ष्मी मैया का आगमन हो जाता है और समय पर उपहार भी मिल जाता है! और कोल्हू के बैलों की मजदूरी का कोई समय ही नही रहता है कभी- कभी तो इनको घरों फाके की नौबत आ जाती है नही तो ये पडोसी के कर्जदार हो जाते है! इनको खुराक भी उतनी ही मिलती है जितना राजपूत अपनी थाली में जूंठन छोंडते हैं और यदि इनके कार्यों का मूल्यांकन किया जाये तो ये होते है रीढ़ की हड्डी] इनके बिना दो कदम भी चलना मुश्किल है।
इन जीवों पर यदि एक नजर डाली जाये तो इनके भी कई जहाज पानी में चलते थे बस बचपन गुजर गया ये बैल बन गये चाहे जैसा खेत हो इनको जोतना ही पडेगा, ये सब बेराजगारी की महिमा का ही असर है जो सब सहन करते जाते हैं! वरना ये भी अपने मुंह में जुबान रखते हैं ये जीव हमेशा एक अच्छे हाकिम और अच्छे हकीम की तलाश में रहते हैं, फिर भी ये जितने पुराने होते है इनका दर्द उतना ही बढ़ता जाता है ये दर्द की दवाई ढूंढते – ढूंढते खुद दर्द का गोदाम बन कर रह जाते है इनकी शारीरिक और मानसिक संरचना एक दम राजपूतों की जैसी ही होती है परन्तु इन पर जलवायु के प्रभाव के कारण यह फल फूल नही पाते हैं कुछ तो धूप छांव सहते- सहते सूख जाते हैं कुछ हरे भरे बने रहते हैं इस उम्मींद में कि हो सकता है कि अगली बारिस अच्छी हो तो कुछ फल फूल ही आ जायें! ये सब यह सोंचते ही रहते है कि सरकार द्वारा बिमारी मिटाने के लिये हर जगह कीटनाशक का छिडकाव करा दिया जाता है, जो जीव थोडा हष्ट पुष्ट रहते हैं उन पर कीटनाशक का असर नही होता है जो जीव कमजोर होते है उनका छिडकाव के कारण अस्तित्व ही मिट जाता है। सरकार को चाहिए की सभी दफ्तरों को साफ सुथरा रखे कहीं पर जल भराव होने ही न दें, न पानी ठहरेगा न जीव जन्तु उत्पन्न होगें और न ही कीटनाशक का छिडकाव करना पडेगा और न ही जीवों के मरने का पाप लगेगा।
-राजकुमार तिवारी (राज)