“छीनी है हिन्दी की बिन्दी”
गौरय्या का नीड़, चील-कौओं ने हथियाया है
हलो-हाय का पाठ हमारे बच्चों को सिखलाया है
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जाल बिछाया अपना छीनी है, हिन्दी की बिन्दी भी
अपने घर में हुई परायी, अपनी भाषा हिन्दी भी
खोटे सिक्के से लोगों के मन को बहलाया है
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हिन्दीभाषा से हमने, भारत स्वाधीन कराया था
हिन्दी में भाषण करके, सत्ता का आसन पाया था
लेकिन गद्दी पाते ही उस हिन्दी को बिसराया है
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चीन और जापान आज भाषा के बल पर आगे हैं
किन्तु हमारे खेवनहारे नहीं नींद से जागे हैं
अन्न देश का खाकर हमने, राग विदेशी गाया है
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विश्वपटल पर कैसे होगी, अब पहचान हमारी
वाणी क्यों हो गयी विदेशी, ऐसी क्या है लाचारी
पुरखों के गौरव-गुमान पर भी संकट गहराया है
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हुक्मरान हिन्दी के दिन को, हिन्दी-डे बतलायें जब
उन गूँगे-बहरों को अपनी, कैसे व्यथा सुनायें अब
हलवा-पूड़ी व्यञ्जन छोड़े, पिज्जा-बर्गर खाया है
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(डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)