सच से वाकिफ था
झुका के सिर, उम्र भर वो तो ख़िदमद में रहा।।
सच से वाकिफ था हमेशा ही अपने कद में रहा।।
क्यों शिकायत करूँ मैं खुद पे उसके कब्जे की।
मुझमे बेहद रहा पर फिर भी अपनी हद मेंं रहा।।
लाख कोशिश के बावजूद भी ख्याल तेरा।
इधर उधर तो हुआ, दिल की ही सरहद में रहा।।
हर एक शाख को खुद में समेटे बैठा है।
उसमे वो हुनर रहा जैसा किसी बरगद में रहा।।
जैसे रूह ने सुना हो सूफियाना गीत कोई।।
यही सुकून तो बस इक तेरी आमद में रहा।।
‘लहर’ दंगों से फसादों से कैसा घबराना।
तमाम उम्र ही तो हादसों की ज़द में रहा।।