ग़ज़ल
दिन करता है रात की चुगली,
इक, दूजे के साथ की चुगली।
छिपते नहीं हैं, लाख छुपाएं,
शक्ल करे हालात की चुगली।
कोई भी संतुष्ट कहां है,
जीत गए तो मात की चुगली।
सावन जाने करता क्यूं है,
पतझड़ से बरसात की चुगली।
होने वाले ससुर से कर दी,
दूल्हे ने बारात की चुगली।
मंदिर, मस्जिद में होती है,
मज़हबों से जात की चुगली।
‘जय’ के घर भी पंहुच गई,
तुझसे की हर बात की चुगली।
— जयकृष्ण चांडक ‘जय’