ग़ज़ल
रफ़ाकत के वो सब किस्से सुहाने याद आते हैं
हमें अब भी मुहब्बत के ज़माने याद आते हैं
रोज़ हँसता था महफिल में कभी दोस्तों के साथ
अब रोता हूँ जब वो दिन पुराने याद आते हैं
इस दश्त-ए-तन्हाई में सुबह-शाम अब मुझको
जो मिलकर साथ गाए थे तराने याद आते हैं
महल मिलके बनाते थे जहां रोज़ हम और तुम
समंदर के वो रेतीले मुहाने याद आते हैं
मुझे गुज़रे हुए कल की तरह जो भूल बैठे हैं
वो सारे लोग मुझको क्यों न जाने याद आते हैं
— भरत मल्होत्रा