जैसा तू चाहे
ऊंचे-ऊंचे पर्वत की गोद से
निकलता भुवन भास्कर
सुनहरी उर्मियां छिटका कर
बर्फीली पहाड़ों पर
ऐसे चमकतीं,जैसे
चांदी की चादर बिछी हो
पत्ते-पत्ते पर ओस की बूंदें
मानों हरे मखमल पर मोती
कल-कल, जल-थल करती
पहाड़ी नदियों की जलधारा
नयनों को सुख पहूंचाती
सुनहरे भोर के आलम में
परिंदों का खुश होना
अपने आशियानों से निकलकर जाना
चहचहाट उनकी कानों में रस घोलती है
मंदिरों की घंटियों और भजनों से तृप्त
होता मन,आह्यलादित होकर बोल
उठता है–
सृष्टि कर्ता तूने कैसी रचना रची है?
जिसमें सुख शांति और दु:व्याप्त है
सत्य भी है , सुंदर है,कल्याणकारी है
पर, मैं याद दिला दूं यहां विभस्तता का
ताण्डव नृत्य भी व्याप्त है
आंखें मूंदकर कहां बैठा है तू।
— मंजु लता