ग़ज़ल
सब हिसाब और किताब देखे हैं
खर्च भी बेहिसाब देखे हैं
फूटी कौड़ी भी नहीं है जेब में
ऐसे भी हमने नबाब देखे हैं
होंगे धनवान बैठे बैठे ही
लोगों ने ये भी ख्वाब देखे हैं
इज्जतों पर जो डालते डाका
हमने वो भी जनाब देखे हैं
एक ही की है रोशनी भरपूर
किसने दो आफताब देखे हैं
बात छुपती नहीं रमेश कभी
चेहरे कुछ बेनकाब देखे हैं
— रमेश मनोहरा