राहबर आज ग़र भला होता।
राहे – नेकी पे वो चला होता।।
वो तो खुदगर्जियों में डूबा है,
उसको नासेह ग़र मिला होता।
इक गया और दूसरा आया,
काश ये खत्म सिलसिला होता।
हमको आदत है जुल्म सहने की,
आदमी यूँ नहीं ढला होता।
इक हुनर है ‘शुभम’, यहाँ जीना,
वरना सीने में ज़लज़ला होता।।
— डॉ. भगवत स्वरूप ‘शुभम’