बचपन खो गया है कहीं
पीठ पर बढ़ती किताबों का बोझ,
स्वयं को सर्वश्रेष्ठ बनाने की चिंता।
सभी कलाओं में निपुणता की चाह,
सफलता के शिखर प्राप्ति की इच्छा।
बचपन खो गया है कहीं……….।
सपनों के बिखर जाने का डर,
अपेक्षाओं पर खरा न उतर पाने का डर।
मित्रों से पिछड़ जाने का डर,
मंज़िल तक न पहुंच पाने का डर।
बचपन खो गया है कहीं………..।
प्रतिस्पर्धा में पीछे छूटते नैतिक मूल्य,
अवसाद की ओर बढ़ते कदम।
भावनाशून्य होती मानसिकता,
डगमगाता आत्मविश्वास।
बचपन खो गया है कहीं……….।
नहीं दिखाई देती अब निश्छल मुस्कान,
मित्रों के साथ अठखेलियां।
मैत्री भाव, सहज व्यवहार ,
चिंता मुक्त विचार।
बचपन खो गया है कहीं……….।
— कल्पना सिंह