पुरस्कार
रोज की तरह प्रार्थना सभा के पश्चात पहले पीरियड की घंटी बजी और सारिका अपना उपस्थिति रजिस्टर, चाक और अन्य शिक्षण सामग्री लेकर कक्षा की ओर चल पड़ी। अंदर प्रवेश करते ही उसकी नजर तरुण पर पड़ी। सभी बच्चों को बैठने का इशारा करते हुए उसने तरुण से वही चिर परिचित प्रश्न किया,” तुम आज फिर से चप्पल पहनकर क्यों चले आए?, पिछले 3 महीने से मैं तुम्हें लगातार कहती आ रही हूं कि बिना जूतों के तुम स्कूल नहीं आ सकते हो इसके बिना तुम्हारी यूनिफार्म अधूरी मानी जाएगी तुम्हें इतनी सी बात समझ में क्यों नहीं आती?” कहते हुए सारिका के चेहरे पर क्रोध के भाव उभर आए।”
मैम मेरे पैर में लगी चोट अभी तक ठीक नहीं हो पाई है इसलिए मैं जूते नहीं पहन सकता हूं।” उसने सिर झुका कर धीरे से उत्तर दिया। उसका उत्तर संतोषजनक नहीं लगा इसलिए डांटते हुए सारिका बोली, “आखिर ऐसी कैसी चोट है जो अभी तक ठीक नहीं हुई, और कितने बहाने बनाओगे? आओ मैं भी तो देखूं जरा।” उसने डरते हुए अपना पैर आगे बढ़ा दिया ।देखा अंगूठे में लगी चोट वास्तव में ठीक नहीं हो पाई थी। घाव से अभी भी हल्का खून रिस रहा था।” इसका सही उपचार क्यों नहीं कराते?” सारिका ने पूछा। वह कुछ नहीं बोला और चुपचाप खड़ा रहा। उसकी आंखों में आंसू छलक आए । तभी उसके घर के पास से आने वाला एक अन्य छात्र, अनुज खड़ा हुआ और उसने सारिका को पूरी बात बताई।
वास्तव में तरुण की आर्थिक स्थिति बहुत खराब थी । उसके पिता दिहाड़ी मजदूर थे और परिवार का भरण पोषण कठिनाई से हो पाता था ।तरुण अपने तीन भाई बहनों में सबसे छोटा था। वह मलखंभ (मध्य प्रदेश का राजकीय खेल) तथा पढ़ाई में बहुत अच्छा था। पढ़ाई के प्रति गहन लगाव को देखते हुए उसके पिता ने उसे यथासंभव अच्छे विद्यालय में पढ़ाने का निर्णय लिया। यद्यपि पास ही एक सरकारी विद्यालय था किंतु वहां किसी शिक्षक की नियुक्ति नहीं थी। अतः अध्यापन का कार्य प्रभावित था। उन्हें पता चला कि शासन के नए शिक्षा नियमों के अंतर्गत प्रतिष्ठित निजी पब्लिक और कॉन्वेंट स्कूलों में भी कुछ सीटें गरीबी रेखा के नीचे वाले बच्चों के लिए भी आरक्षित रहती हैं। उन्होंने तरुण को शहर के ही एक नामचीन प्राइवेट विद्यालय में पढ़ाने का निर्णय लिया। स्कूल में उसका एडमिशन भी हो गया। किसी प्रकार से किताबों और यूनिफार्म की व्यवस्था तो उन्होंने कर दी थी लेकिन जूते खरीदने के पैसे नहीं बचे थे। 10 वर्ष का मासूम बच्चा होने के बावजूद भी तरुण अपने पिता को परेशान नहीं देख सकता था इसलिए उसने इसका एक उपाय निकाला ।उसने जानबूझकर अपने पैर में चोट लगाई जिससे कि वह चप्पल से काम चला सके और स्कूल में भी डांट न पड़े ।जब भी घाव भरने लगता उसे खुरचकर ताजा कर लेता। यह वह तब तक करने वाला था जब तक कि उसके पिता के पास जूते खरीदने के पैसे इकट्ठे नहीं हो जाते।
वास्तविकता जानकर सारिका का मन उद्वेलित हो उठा। वह अजीब सी बेचैनी का अनुभव कर रही थी। उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि इस स्थिति में क्या प्रतिक्रिया व्यक्त करे? और कैसे? वह सोच में पड़ गई कि जिन लोगों के पास महंगी यूनिफॉर्म खरीदने और विद्यालय के दिखावटी मानदंड के अनुरूप व्यवस्था करने की क्षमता नहीं है क्या उन्हें गुणवत्तापूर्ण शिक्षा प्राप्त करने का अधिकार नहीं होना चाहिए ? अच्छी शिक्षा का आधार सैंडल जूते या महंगी यूनिफार्म को बनाना कहां तक उचित है?
सारिका यह अच्छी तरह से समझ चुकी थी कि तरुण एक संवेदनशील और स्वाभिमानी बच्चा है। वह किसी भी स्थिति में दूसरे से सहायता लेना स्वीकार नहीं करेगा। लेकिन वह उसकी परेशानी को भी दूर करना चाहती थी। इसलिए उसने अपनी कक्षा में गणित विषय की प्रतियोगिता करवाने की सोची। उसने घोषणा की, कि जो बच्चा उस में प्रथम स्थान प्राप्त करेगा उसे पांच सौ रुपए तक का मनचाहा पुरस्कार मिलेगा। सभी बच्चों ने उत्साह पूर्वक भाग लिया और जैसा कि अंदाजा था विजेता तरुण ही बना। सारिका ने उसे शाबाशी दी और पूछा कि उसे पुरस्कार के रूप में क्या चाहिए ।” मुझे एक जोड़ी जूते पुरस्कार के रूप में मिल सकते हैं क्या?” मासूमियत से उसने पूछा। सारिका ने हां में सिर हिलाते हुए उसे गले से लगा लिया। दोनों की आंखों में आंसू थे। संभवत दोनों ही इसका कारण भली-भांति जानते थे।