लघुकथा

लघुकथा – उम्मीद

आज फिर सोमेश बाबूजी डाक घर के सामने  उदास बैठे दिखे। डाक बाबू ने उन्हें अंदर बुलाया और कहा,”बाबूजी, आप दो बरस से डाकघर  बिना नागा किये आ रहे हैं।आखिर वो कौन सी चिट्ठी है , जिसका आपको आने का इंतजार है? आप रोज चार किलोमीटर पैदल चलकर डाकघर आते हैं और थककर लौट जाते हैं। मेँ तो कहता हूँ कि आप इस उम्र में यहाँ तक मत आया करें। आपके नाम से कोई चिट्ठी आएगी तो हम लोग  आपके घर जरूर पहुँचा देंगे। ए तो हमारा काम ही है।”
      डाक बाबू की बात सुनकर बाबूजी की आँखों में जैसे दर्द के बादल उमड़ पड़े।उनकी आंखें छलकने लगीं। उन्होंने रुंधे गले से कहा-” हाँ डाकबाबू ,अब तो  तन- मन  दोनों थक  चुका है पर उम्मीद अब भी बाकि है। मैंने अपना पूरा जीवन  दोनों बेटों के कैरियर बनाने में निकाल दिए। छोटी सी नौकरी में अपना पेट काट-काट कर उन्हें उच्च शिक्षा दिलवाई। जब उन्हें विदेश में नौकरी मिली तो मेरा सीना गर्व  से चौड़ा हो गया।  जैसे-तैसे अपनी पत्नी का जेवर गहना बेचकर , मकान गिरवी रखकर मैंने अपने बेटों को विदेश भेजा। यही सोचकर की आज ये छोटा सा कर्ज है कल मेरे कमाऊ बेटे आसानी से चुका देंगे।वे  हमारे बुढ़ापे का सहारा बनेंगे। उन्हें विदेश गये आज छः बरस हो गए। इस बीच उन्होंने कभी लौटकर नहीं देखा। शायद वहीं शादी करके बस गए हैं। उनकी चिट्ठी  महीने दो महीने में पहले आती रहती थी पर वे कभी नहीं आये। उनकी बूढ़ी बीमार माँ की आँखे अपने बेटों के इंतजार में हमेशा के लिए मूंद गईं फिर भी वे नहीं आये। सोचता हूँ माँ के मरने की सूचना मिलने पर वे आये चाहे न आये पर कोई चिट्ठी तो जरूर भेजेंगे। यही सोचकर  रोज यहां चक्कर लगाता हूँ पर अब दो साल हो गए अब तक उनकी कोई चिट्ठी नहीं आई। आज नहीं तो कल उन्हें अपने बूढ़े एकाकी जीवन जी रहे  इस पिता की जरूर याद आएगी। वे एक दिन जरूर मुझे चिट्ठी लिखकर अपने पास बुलाएंगे। बस इसी उम्मीद में मेँ जी रहा हूँ।”
यह कहते हुए बाबूजी लाठी टेकते हुए जाने लगे। डाकबाबू स्तब्ध भाव से उन्हें जाते हुए देखते रहे।
डॉ. शैल चन्द्रा

*डॉ. शैल चन्द्रा

सम्प्रति प्राचार्य, शासकीय उच्च माध्यमिक शाला, टांगापानी, तहसील-नगरी, छत्तीसगढ़ रावण भाठा, नगरी जिला- धमतरी छत्तीसगढ़ मो नम्बर-9977834645 email- [email protected]