दोहागीत “बेटी जैसा प्यार”
कुलदीपक की सहचरी, घर का है आधार।
बहुओं को भी दीजिए, बेटी जैसा प्यार।।
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बाबुल का घर छोड़कर, जब आती ससुराल।
निष्ठा से परिवार तब, बहुएँ सहीं सम्भाल।।
नहीं सुता से कम यहाँ, बहुओं का प्रतिदान।
भेद-भाव को त्यागकर, उनको देना मान।।
बहुओं से घर का चमन, होता है गुलजार।
बहुओं को भी दीजिए, बेटी जैसा प्यार।।
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बहुएँ घर की स्वामिनी, हैं जगदम्बा-रूप।
अपने को खुद ढालतीं, रिश्तों के अनुरूप।।
सुन कर कड़वी बात भी, बहू न होती रुष्ट।
रहती हर हालात में, शान्त और सन्तुष्ट।।
बहुओं पर मत कीजिए, हिंसा-अत्याचार।
बहुओं को भी दीजिए, बेटी जैसा प्यार।।
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हो जाते परिवार में, कभी-कभी मतभेद।
मगर न रखना चाहिए, आपस में मनभेद।।
नया जमाना आ गया, नये-नये हैं काज।
बहुओं पर मत थोपना, रूढ़ी और रिवाज।।
वट-पीपल के वृक्ष सा, रहना सदा उदार।
बहुओं को भी दीजिए, बेटी जैसा प्यार।।
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रंग-रंग के सुमन हैं, लेकिन उपवन एक।
फूलों से होता सदा, देवो का अभिषेक।।
घर के बड़े बुजुर्ग हैं, देवताओं का रूप।
सहते मौसम की वही, बरखा-सरदी-धूप।।
हर उत्सव पर पर बाँटिए, बहुओं को उपहार।
बहुओं को भी दीजिए, बेटी जैसा प्यार।।
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बहुओं के कारण बने, दादा-दादी लोग।
वंशबेल का बिन बहू, बनता नहीं सुयोग।।
पोते-पोती से हुआ, उपवन है गुलजार।
कहलाता है चमन वो, जिसमें रहे बहार।।
सास-ससुर के प्यार की, बहुओं को दरकार।
बहुओं को भी दीजिए, बेटी जैसा प्यार।।
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(डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)