मौन का शोर
अंतश में गूंजने लगा है , मौन का ये शोर।
होने लगा है इसका , असर यूं चारो ओर।
पलकों को झपकने,नहीं देता ये रातों को,
आंखों में बस गया है,बनके घटा घनघोर।
मीलों से हो गये दिन ,सदियों के जैसी रात,
कभी दिनको तरसे नैना,कभी ढूंढते हैं भोर।
सूनी पड़ी है धरती , चुपचाप आसमां है,
आंखों का है भरम या , थामे हुये हैं छोर।
खोया सा लग रहा है , सागर का किनारा,
है चांद अधूरा सा , लहरें भी हैं कमजोर।
धड़कन भी चल रही है ,चुपचाप इस तरह,
दिल बंध गया हो जैसे ,रिश्ते में बिना डोर।
— पुष्पा “स्वाती”