आ गया हूँ द्वार तेरे
आ गया हूँ द्वार तेरे माँ स्वयं से हार कर
याचना है बस यही विनती मेरी स्वीकार कर
कोटि अरि मुंडो की माला तुझको अर्पित कर सकूँ
शारदे माँ इस कलम की धार को तलवार कर
जब तलक है प्राण तन में राष्ट्र ध्वज झुकने न दूँ
देश द्रोही इस धरा पर एक भी रुकने न दूँ
दीप को दिनमान हिम कण को प्रखर अंगार कर
शारदे माँ इस कलम की धार को तलवार कर
ये जो छाये हर तरफ है द्वेष के बादल घनेरे
और चहुँ दिशि दिख रहे हैं कुटिल गिद्धों के बसेरे
जटिल झंझा वात को इस दूर कर उद्धार कर
शारदे माँ इस कलम की धार को तलवार कर
ये तो तय है देश मेरा जगत गुरु अब फिर बनेगा
विश्व भर में जिसकी गरिमा ज्ञान का उत्सव मनेगा
माँ मेरी इस कल्पना को आज तू साकार कर
शारदे माँ इस कलम की धार को तलवार कर
— मनोज श्रीवास्तव