दशहरा
आज विजयादशमी है। अच्छाई की बुराई पर, सत्य की झूठ पर, विनम्रता की अहंकार पर विजय का पर्व। हर वर्ष हम बड़ी धूमधाम से दशहरा मनाते हैं, दशानन के पुतले का दहन करते हैं और फिर वर्ष भर के लिए इसे भूल कर अपने जीवन के पुराने ढर्रे पर आ जाते हैं। दशहरा कोई एक दिन मनाने वाला पर्व नहीं है। ये तो जीवन जीने का एक ढंग है, जीवन भर चलने वाली एक प्रक्रिया है, जो हमें केवल विचार में ही नहीं, आचार में भी लागू करनी पड़ती है।
प्रायः लोग कहते हैं कि आजकल बुराई अधिक शक्तिशाली हो गई है एवं ये सब पुरानी बातें, पर्व एवं प्रतीक अब प्रासंगिक नहीं रहे। ये सोच एकदम गलत है। असत्य सदा से ही ऐश्वर्यशाली रहा है एवं सत्य हमेशा से ही साधारण। परंतु अंत में विजय हमेशा सत्य की ही होती है। रावण हमेशा से रथ पर सवार रहा है एवं राम सदा ही विरथी रहे हैं। सत्य के शुभचिंतकों को आदिकाल से ये असमंजस रहा है कि सत्य कैसे जीत पाएगा। विभीषण ने भी युद्ध के मैदान में प्रभु श्रीराम से प्रश्न किया था
“नाथ न रथ नहिं तन पद त्राना
केहि बिधि जितब बीर बलवाना”
अर्थात हे प्रभु आपके पास रथ नहीं है, पैरों में पादुकाएँ हैं आपके पैरों में। इस साधन संपन्न शक्तिशाली (रावण) पर आप किस प्रकार विजय प्राप्त करेंगे? तब प्रभु श्रीराम ने विभीषण के संशय का निवारण करने के लिए जो उत्तर दिया था वो हर युग, हर काल में प्रासंगिक है। प्रभु कहते हैं
“सुनहु सखा कह कृपानिधाना
जेहि जय होइ सो स्यंदन आना
सौरज धीरज तेहि रथ चाका
सत्य सील दृढ़ ध्वज पताका”
अर्थात हे मित्र, धन एवं ऐश्वर्य युक्त रथ से विजयश्री का वरण नहीं होता। अजेय रथ का निर्माण तो मर्यादा, सात्विक आचरण, नैतिक मूल्यों से होता है। शौर्य एवं धैर्य के पहियों पर वो रथ गतिमान होता है। सत्य एवं सदाचार की मजबूत एवं कालजयी ध्वजा व पाताका उस रथ को शोभायमान करती हैं। बल, विवेक, दम एवं परोपकार ये चार इस अजेय रथ के अश्व हैं जो इसे गति एवं सुंदरता प्रदान करते हैं। क्षमा, जीवों के प्रति दयाभाव, भेदभाव न करने एवं समाज को समान दृष्टि से देखने की डोरी इस रथ को अश्वों से जोड़ती है। ईश्वर का भजन इस रथ का चतुर सारथी है जो इस रथ को कभी भटकने नहीं देता एवं गलत दिशा में जाने नहीं देता। वैराग्य मेरी ढाल है, संतोष मेरी तलवार है, गरीबों को दान देना मेरा परशु है, पाप रहित एवं स्थिर मन मेरा अमोघ तरकश है। बुद्धि मेरी प्रचंड शक्ति है एवं श्रेष्ठ विज्ञान मेरा धनुष है। अहिंसा एवं मन का वश में होना मेरे बाण हैं। विद्वानों एवं गुरू का आशीर्वाद मेरा कवच है। तब प्रभु विभीषण को कहते हैं
“सखा धर्ममय अस रथ जाके
जीतन कहं न कतहुं रिपु ताके”
अर्थात ऐसा धर्ममय रथ जिसके पास हो उसे इस विश्व में कोई भी शत्रु परास्त नहीं कर सकता। इस वार्तालाप में गोस्वामी जी ने मानों पूरे जीवन का सार समाहित कर दिया है, गागर में सागर भर दिया है। रावण किसी व्यक्ति का विशेष का नाम नहीं है। रावण तो हम सबके भीतर है, रावण तो एक मानसिकता है। हमारे अंदर जो अहंकार है अपने ज्ञान का, अपने वैभव का, अपनी सुंदरता का वही रावण है। हमारे अंदर जो असत्य है, लोभ है, क्रोध है, वही रावण है। इस अहंकार, लोभ, क्रोध, असत्य का यदि नाश करना है तो वो सत्य एवं सदाचार के रथ पर सवार होकर ही किया जा सकता है। अन्य कोई उपाय न था, न है, न होगा। यदि हम रावण दहन के पीछे छुपे प्रतीकों को नहीं समझेंगे तो केवल एक पुतला जलाने से कोई लाभ होने वाला नहीं है। आइए इस विजयादशमी पर हम ये संकल्प करें कि दशानन के पुतले के साथ-साथ हम अपने भीतर बैठे हुए दशानन का भी दहन करेंगे। तभी ये विजयादशमी सार्थक हो पाएगी।
मंगलमय दिवस की शुभकामनाओं सहित आपका मित्र :- भरत मल्होत्रा।