धर्म-संस्कृति-अध्यात्म

विजयदशमी की प्रासंगिकता

“पुतला रावण का ही क्यों जलाते हैं हम हर साल,

मन के रावण को भी मारें आओ हम इस बार।”
       बुराई पर अच्छाई के विजय प्रतीक के रूप में प्रतिवर्ष अश्विन शुक्ल की दशमी को मनाये जाने वाले पर्व’ विजयदशमी’ की प्रासंगिकता संदेहास्पद प्रतीत होती है ।हम इस दिन रावण, मेघनाद और कुंभकरण के प्रतीकात्मक पुतलों को जलाकर दशहरा त्योहार की औपचारिकता पूर्ण कर लेते हैं ।वास्तव में यह पर्व दस प्रकार के पापों काम, क्रोध, लोभ,मोह, मत्सर ,अहंकार, आलस्य ,हिंसा और चोरी जैसे अवगुणों के त्याग की प्रेरणा देता है। हम अपने अंदर रखतबीज जैसे पनप रहे इन दस रावण में से संभवत किसी एक का भी संहार नहीं कर पाते हैं। यदि ऐसा कर पाते तो संस्कार, संस्कृति और सोने की चिड़िया कहे जाने वाले हमारे देश का वर्तमान स्वरूप ऐसा न होता। यद्यपि विज्ञान और तकनीकी के क्षेत्र में हमने अपार सफलता प्राप्त की है और विश्व में अपनी उपस्थिति दर्ज की है । ध्यान देने योग्य बात यह है कि विश्व के ऐसे बहुत से देश हैं जिन्होंने इन क्षेत्रों में अपनी धाक जमाई है फिर भी ऐसा क्या है की विदेश भी हमारे आगे नतमस्तक हैं स्पष्ट है कि यह हमारी सांस्कृतिक धरोहर ही है जो लोगों का ध्यान आकृष्ट करती हैं।लेकिन चारों ओर व्याप्त भ्रष्टाचार ,छल कपट, जाति धर्म के नाम पर हो रहे बवाल, मासूमों पर होते अत्याचार, मोब लीचिंग की घटनाएं, हमारी धरोहर और पहचान माने जाने वाले नैतिक मूल्यों की विलुप्ति इत्यादि आज भी हमें जग सिरमौर बनने से रोक रहे हैं।
राम का वेश धारण कर आजकल जाने कितने रावण घूम रहे हैं ।भ्रष्टाचार ,व्यभिचार सुरसा की तरह मुंह बाए खड़े हैं ।”सत्य का बोलबाला, झूठे का मुंह काला “जैसी कहावतें और लोकोक्तियों का तो जैसे कोई अर्थ ही नहीं रह गया है। दिलों में नफरतों का सैलाब लिए लोग गले मिल रहे हैं रिश्तो का अवमूल्यन होता जा रहा है जाने कितने  रावण और सोने की लंका आज भी सांसे ले रहे हैं। कहा जाता है कि यदि रावण का वध भगवान श्रीराम ने न किया होता तो सूर्य हमेशा के लिए अस्त हो जाता। यदि समय रहते हमने अपने अंदर फल फूल रहे अवगुण रूपी रावण का संहार नहीं किया तो वह दिन दूर नहीं जब हमारे देश की आन बान  का सूर्य अस्त होने से कोई नहीं रोक सकेगा ।कलयुग में कोई राम या हनुमान नहीं आएगा जो कुछ भी करना है हमें मिलजुलकर करना है।अभी भी ज्यादा कुछ नहीं बिगड़ा है। बस आवश्यकता है तो दृढ़ संकल्पित होने की।
    विजयदशमी के इस पावन पर्व पर,
    आओ मिलजुल कर हम संकल्प करें।
    काम, क्रोध, मोह, लाभ को तज कर,
   आलस, अहंकार ,हिंसा का संहार करें।
     मन के रावण को हम मारें,
    राम का फिर से आह्वान करें।
    नव गति, नव लय, ताल ,छंद से,
    नवयुग का हम सूत्रपात करें।
— कल्पना  सिंह

*कल्पना सिंह

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