ग़ज़ल
ज़माने से ज़ख़्म अपने छुपा लिए मैंने
छुप के दुनिया से आँसू बहा लिए मैंने
हो के बर्बाद इश्क़ में ये सोचता हूँ मैं
हाथ इस आग में क्योंकर जला लिए मैंने
बावस्ता थीं जिनसे मेरी सब उम्मीदें
अपने जज़्बात उनसे भी छुपा लिए मैंने
जी घबराने लगा जब मेरा तन्हाई से
तेरी ग़ज़ल के शेर गुनगुना लिए मैंने
दो – चार रोज़ करके कारोबार-ए-इश्क
दर्द ज़िंदगी भर के कमा लिए मैंने
— भरत मल्होत्रा