बोलती खामोशियां
मुशायरा चल रहा था. एक-से-एक बेमिसाल शायर अपनी शायरी का जलवा दिखाकर सबको मदहोश किए जा रहे थे. सुलेखा भी मदहोशी में शायरी का लुत्फ़ उठा रही थी, तभी मंच से एक शेर पढ़ा गया-
”उसे खामोश आवाजें बहुत पसंद थीं,
बोलकर इजहार किया, तो रूठकर चला गया वो.”
इसे सुनने के बाद सुलेखा मानो किसी और ही दुनिया में पहुंच गई. उस दुनिया में केवल वह थी और था उसका सौरभ.
”सौरभ के साथ बिताए गए वे कुछ दिन कितने हसीन थे! सौरभ मैसेज करता- ‘जुहू बीच पर- शाम पांच बजे.’ और वह उससे मिलने पहुंच जाती थी.” उन कुछ दिनों की मधुर स्मृतियां उसके मन को अब भी मधुरिम कर रही थीं.
”मुझे पता था जुहू बीच पर एक ही तो जगह थी, जहां हम दोनों मिलते थे, साथ बैठते थे, आंखों-ही-आंखों में प्यार का इजहार करते थे और विदा हो जाते थे.” वो भी क्या दिन थे! उसे लग रहा था, मानो अभी भी वह सौरभ के साथ है!
”एक दिन मैंने यों ही पूछ लिया था- ‘ऐसे कब तक चलेगा जानू!’ सुलेखा के मन में शायद पश्चाताप की अग्नि धधक रही थी!
”उसके और मेरे बीच यही पहला और आखिरी संवाद था.” सुलेखा की खामोश निगाहें शून्य को निहार रही थीं.
”उसके बाद सौरभ का कोई मैसेज नहीं आया था.” सुलेखा का मन किया कि बाहर निकल जाए.
तभी मोबाइल पर एक मैसेज आया- ‘बाहर गेट पर मिलो. सौरभ’
जवाब देने का सब्र सुलेखा में बचा ही कहां था! वह तत्काल हॉल से बाहर निकली. सामने ही सौरभ दिखाई दिया.
आंखों-ही-आंखों में पुनः संवाद हुआ. मौन के तरन्नुम में उनके कदम जुहू बीच की ओर चल पड़े.
बोलती खामोशियां पुनः मुखर हो उठी थीं.
जुबां से कहूं तो शायद कोई न समझे,
शब्दों में बयां करता हूं दिल की बातें,
क्योंकि यही हैं मेरी खामोश आवाजें.