कविता

जीवन -चक्र

कल मैं बच्चा था
कितना अच्छा था
आज हम हो गये बड़े
जिम्मेदारी भी हो गये खड़े
पहले कितना मस्त था
किसी चिंता से न त्रस्त था
पढ़ाई और खेलाई में व्यस्त था
अब बड़े होने पर हालत पस्त है
जिम्मेदारीयाॅ से जीवन ध्वस्त है
दो जुन की रोटी के लिए बेहाल है
क्या करूँ पापी पेट का सवाल है
महंगाई से अपनी लड़ाई है
दो पैसे जो कमाई है
इससे न होता भरपाई है
जरूरतों से जीवन नहाई है
अब जीवन है तो जीना पड़ेगा
दुख सुख को पीना पड़ेगा
जो दिया जीवन वो ही है खेवइया
अब मिले सुखी रोटी या सेवइया।
— मृदुल