विडम्बना
विडम्बना
वही तो है, बिल्कुल वही। आज पाँच वर्षों के बाद उसे देखा मैंने हरिद्वार में पतितपावनी गंगा के किनारे। गेरुआ वस्त्र में लिपटी हुई, मुख पर असीम शांति लिए हुए चोटिल और बीमार पशुओं की सेवा करते करते हुए। एकबारगी मन हुआ दौड़ के उसके पास पहुँच जाऊँ और पूछूँ कि वो यहाँ इस रूप में क्या कर रही? पर अपने साथ के लोगों के सामने मैं ऐसा नहीं कर सकी।
अगली सुबह मैं चुपके से अकेले उसी स्थान पर पहुँची जहाँ उसे कल देखा था। आज भी वो प्रातः ही अपने कल के कार्य में लीन दिखी। मैं धीरे से उसके सम्मुख जाकर खड़ी हो गई। उसने निगाहें उठाकर मेरी तरफ देखा उसकी आँखों में मुझे पहचानने की चमक साफ दिखाई दी।
“सुधा! तुम सुधा ही हो ना?” मैंने पूछ ही लिया। वो कुछ देर चुपचाप अपने कार्य में लगी रही फिर वापस एक कुटिया की तरफ बढ़ गई।
“बोलो सुधा! यहाँ इस रूप में क्यों और कैसे?” मैंने उसका पीछा नहीं छोड़ा।
वो कुटिया के बाहर पेडों के झुरमुट बीच चैपाल पर मुझे बैठने का इशारा करते हुए बैठ गई।
“इन चार वर्षों में आप पहली हो दी जो मुझे पहचानने वाली मिली हो। तुम्हें तो सब पता है, सुधा ना जाने किस भाव किस प्यास की तलाश में भटकती रही साल दर साल। ब्याह हुआ लगा तलाश पूरी हुई पर वहाँ तो वो बस देह थी, दासी थी। फिर मिला एक पुरुष प्रेम के सपने दिखाने वाला प्रेम रस में डूबी बातें करने वाला पर अपना बनाने के नाम पर बिदक गया। कुछ वर्ष ऐसे ही कट गए उसी वक्त तो आपसे मुलाकात हुई थी मेरी। मेरी जिंदगी में आई मेरी एकमात्र सखी, बहन जो भी कह लो।” कहते-कहते वो चुप हो गई। ये वही सुधा थी जिसकी आँखें बात बात पर भर जाया करती थी पर आज कितनी कठोरता पूर्वक वो अपने बारे में बता रही थी।
“जिसके साथ सारा घर द्वार सारे रिश्ते नाते छोड़ कर निकली थी आपके बहुत समझाने के बाद भी, उसे पाकर लगा मेरी सारी तलाश मेरी इच्छाएं पूरी हो गईं। आरम्भ के छः महीने तो मेरे कदम जमीन पर थे ही नहीं। फिर वक्त ने ऐसी करवट ली कि मैं पत्थर की शिला बनती गयी। उसे मुझ पर सदा सन्देह रहा कहीं मैं पिछली जिंदगी तो याद नहीं करती उसकी अनुपस्थिति में उनसे बात तो नहीं करती। प्रेम अथाह था दी पर विश्वास चूक गया। किस घड़ी मन बैरागी हुआ और यहाँ आ पहुँची पता ही नहीं चला। यह असीम शांति है हृदय परिपूर्ण है इन अबोले जीवों के बीच।” कहते हुए वो उठी और फिर अपने कर्मपथ की ओर बढ़ गयी।
बहुत ही खूबसूरतए बधाई