कुण्डलिया – दिए जलाएँ नेह के
दिए जलाएँ नेह के , बिन बाती बिन तेल।
दीवाली हर रोज़ है , जब हो मन में मेल।
जब हो मन में मेल, नहीं हो मैल ज़रा – सा।
खिलते मोहक सुमन, दिखे सब हरा हरा – सा।।
स्वस्थ सुखी नीरोग, टलें सब अला – बलाएँ।
‘शुभम’ – हृदय के दीप, चलो हम दिए जलाएँ।।1।
दीवाली की रात है , खुशियों का त्यौहार।
मन से कटुता दूर हो, कपट रहित व्यौहार।।
कपट रहित व्यौहार, द्यूत मदिरा को त्यागें।
सबका सोचें लाभ, दीनता तृष्णा भागें।।
ऐसे बोलें बोल , नहीं दें चुभती गाली।
‘शुभम’ करे सत काम, नेक हो तभी दिवाली।।2।
देने को कहते सभी , दिया मनोहर नाम।
जैसा उसका नाम है , वैसा उसका काम।।
वैसा उसका काम , इसी माटी से बनता ।
दीपक , बाती तेल- जलाकर सपने बुनता।।
अँधियारा हो दूर , किया कुछ कभी न मैंने।
‘शुभम ‘ एक ही काम, जानता केवल देने।।3।
लंका औ ‘ लंकेश को , जीत आ गए राम।
पुरी अयोध्या में हुई , खुशियाँ भव्य ललाम।।
खुशियाँ भव्य ललाम, दिए घृत पूर जलाए।
दिन – सी खिलती रात, रात मावस की पाए।।
गाँव – नगर में ख़ूब, बज रहे घन – घन डंका।
रघुकुल – भूषण राम , जीत कर आए लंका ।।4।
बालें सब पकने लगीं, घर में आए धान।
स्वागत करने के लिए , जागा कृषि – संधान।।
जागा कृषि – संधान , लक्ष्मी – पूजन करता।
श्रीगणेश के साथ, दिवाली दीप निखरता।।
मन में ‘शुभम’ तरंग , बिना पूजन क्यों खालें?
दीवाली पर पूज, बनी उपयोगी बालें।।5।
— डॉ. भगवत स्वरूप ‘शुभम’