यह त्रेता नहीं ,क्रेता युग है!
अंधकार से
प्रकाश की ओर
जाना है,
अन्तस् के तमस को
मिटाना है,
सद -भावनाओं के दिये
भुवन भर में
जलाना है,
सदिच्छाओं के
खील – बतासे
घर -घर
बँटवांना है।
अभी तक
जिंदा है
अहंकार का रावण ,
रक्तबीज बन
पुनः -पुनः
उगता है,
रावण के दम्भों को
गली -गली
भुगता है ।
लीलाएँ करके
दिखाते हैं
लक्ष्मण – राम की,
मगर वे नहीं
रह पाई
आदमी के
किसी काम की,
क्योंकि बन पाया नहीं
अभी तक यहाँ
कोई भी राम दूजा,
कर सकें जिसकी
हम सब
कभी पूजा,
हाँ ,
रावणों की तो
यहाँ खेती होती है,
क्या आज की माएँ
अपनी कोखों में ,
रावणों के बीज
बोती हैं ??
पति -पुरुष को
देवता मानने वाली
नारियाँ,
करवा -चौथ ही नहीं
आजीवन
सेवा -निरत
महानारियाँ,
परुषता के प्रतीक
पुरुष के अहंकार तले
दबाई -कुचली जाती हैं ,
अपने साथ हुए
दुष्कर्मों की व्यथा
कह भी नहीं
पाती हैं,
बलात कर्मकाण्ड को,
नहीं ही
जताती हैं,
आजीवन
आत्म – ग्लानि की
दावाग्नि में
स्वयं को
जलाती हैं।
कोई राम
नहीं आता है
उनकी
लाज को बचाने!
थोप दिए
जाते हैं
काले आरोप
नारी को ही फँसाने,
आएगा भी कहाँ से
और कैसे!
राम एक ही थे,
और एक ही रहेंगे,
रावण तो
कलियुग में
कुकुरमुत्तों की तरह,
हर गली
हर मोहल्ले,
नगर गाँव में,
उग ही रहे हैं ,
उगते भी रहेंगे।
वह तो
त्रेतायुग था,
और यह
क्रेता युग है,
यहाँ बिकता है
सब कुछ,
कुछ भी बेचो,
खरीद लो
कुछ भी-
इज्जत , आबरू,
धर्म ,कर्म ,
शिक्षा , सियासत,
नेता, अभिनेता,
उपाधियाँ ,सम्मान
-सब कुछ
बिकाऊ है ,
जिसकी अंटी में है
काले दाम का दम ,
उसी की जय जय
हर- हर ,बम – बम ,
वह नहीं है
किसी से कम ,
नैतिकता को
खूँटी पर टाँगकर ,
अनीति के संग
जोड़ी बाँधकर ,
काले को सफेद
औऱ सफेद को काला,
कर दिया
जाता है,
आज की मानवता का
यहीं तक
नाता है !
हर आम और खास को
यही सब
भाता है,
यही रास आता है।
‘शुभम ‘ का
कब कहाँ
खुल पाता
खाता है !!
— डॉ. भगवत स्वरूप ‘शुभम’