व्यंग्य – लक़ीर के फ़क़ीर बने रहें
समझदारी इसी में है कि हम लक़ीर के फ़कीर बने रहें। इससे सबसे पहला और बड़ा लाभ ये है कि हमें अपने दिमाग़ पर ज़्यादा ज़ोर नहीं देना पड़ता। अरे ! वैसे भी इस नाज़ुक और जिम्मेदार दिमाग़ पर क्या कम बोझ है ,जो बेकार में ही अपने सिर पर ज्यादा सोचने का भार उठाता फिरे।इसीलिए इसी बात में ज्यादा सुख -चैन है कि पहले से जो लकीरें बना दी गई हैं , उन्हीं पर बिना सोचे-विचारे चला जाए।देश और समाज में फैली अनेक रीतियों को कुछ तथाकथित प्रबुद्ध कहे जाने वाले लोग अक़्सर नकारते और उनका विरोध करते हुए देखे जाते हैं। लेकिन इसमें कोई ऐसी बुद्धिमानी की बात नहीं है। कुछ लोग हैं कि अनेक समाज और धर्म से जुड़ी हुई परंपराओं को बदलने की बात करते हैं। यह उचित नहीं है। जैसा हमारे पूर्वज ,उनके पूर्वज और उनके भी पूर्वज करते आए भला उसको बन्द करने या बदलने की ज़रूरत ही क्या है। आँखें बन्द कर के उनका पालन करना हमारा धर्म बन जाता है। उनके पद चिह्नों पर चलते रहने से पूर्वजों का सम्मान होता है और परम्परा भी जिंदा रहती है।
कुछ कवि ओर साहित्यकार कहे जाने वाले प्राणी अपने लेखों और कविताओं में इसे दकियानूसी और रूढ़िवादी कहकर नकारने की भरसक कोशिश करते ही रहते हैं। पर इससे क्या कोई समाज बदल सकता है? भला ये कवि और लेखक लोग क्या बिगाड़ लेंगे? हमारी सनातन परम्परा को कैसे तोड़ा मरोड़ा जा सकता है ? भले ही उसमें कितनी ही गन्दगी हो , पर हमें उस गन्दगी को सिर – माथे पर धारण करना चाहिए
ही चाहिए। कुछ लोगों का यह भी मानना है कि इन कवि लेखकों को इन पर न तो व्यंग्य लिखना ,कहना चाहिए और न ही कोई चुट्कुले आदि ही लिखने , कहने चाहिए। इससे अपनी सनातन परम्परा का अपमान होता है। क्योंकि इन रूढ़ियों के चलते हमारी रोटी चलती है। हमारा सम्मान बढ़ता है और लोगों को चूसने का सुनहरा अवसर भी मिलता है। यदि आदमी जागरूक हो गया तो हमारी तो रोटी ही छिन जाएगी।इसलिए होली , दिवाली , करवा – चौथ , नव दुर्गा आदि से सम्बंधित कोई हँसी – मज़ाक भी नहीं लिखनी , कहनी चाहिए। भला इस तरह भी कोई अपनी परंपराओं का उपहास करता है। यदि ये सब होता रहा तो एक दिन हमारी रोजी – रोटी पर पत्थर पड़ने ही हैं।
आदमी को पढ़ -लिख कर बदलाव के लिए नहीं सोचना चाहिए। अगर ये कवि , कहानीकार , उपन्यासकार , व्यंग्यकार इसी प्रकार समाज की आँखें खोलने में लगे रहे ,तो अपनी तो बहुत जल्दी बंद ही हो जाएँगीं। कुछ विज्ञान पढ़े – लिखे लोगों के दिमाग तो साहित्यिक लोगों से भी चार
कदम आगे चलते हैं। वे तो भगवान में भी विश्वास करना पिछड़ापन समझते हैं। अणुओं के संयोग से सृष्टि का निर्माण मानने वाले इन लोगों
के लिए ईश्वर भी कुछ नहीं है। विज्ञान के चार अक्षर क्या पढ़ लिए ,ये सारे धर्म कर्म के विरोधी हो गए। इन्हें परंपराओं को मानना अखरता है।ये पूजा-पाठ , नमन -वंदन में कोई विशेष रुचि लेते हुए दिखाई नहीं देते। इनके तर्कों के आगे अच्छे -अच्छे पानी भरने लगते हैं। भाई हमें तो यही
अच्छा लगता है : सब ते भले वे मूढ़ जन , जिन्हें न व्यापे जगतगति। इसलिए ज्यादा सोच -विचार करने के बजाय अपने रूढ़िवादी संस्कारों की बनी लकीर पर ही चलते रहने में सबकी भलाई है। भला जो लकीर हमारे दादा परदादओं ने बना दी , उसे लाँघने अथवा तोड़ने अथवा अपनी एक नई लकीर बनाने की ज़रूरत ही क्या है ? उसी लकीर पर चलकर ही तो हम आज को प्राप्त हुए हैं।
आज का आज हमारे कल की देन हैं। परंपरा चाहे अंधी हो , है तो परम्परा ही न ? यदि एक भेड़ कुएँ में गिर जाए तो क्या ? हम सबको भी पूर्वजों के पूर्वनिर्दिष्ट मार्ग पर चलने की पूर्ण स्वतंत्रता है । उसमें किसी को भी तोड़ने या बदलने का अधिकार नहीं है। कुछ लोग इसे भेड़-चाल
कहते हैं , कहते रहें। इस भेड़ संस्कृति में ही यदि हमारी भलाई है , तो हमारा भेड़ बना रहना हमें स्वीकार है। हम समय के साथ क्यों बदलें !
नदी के प्रवाह के साथ बहते चले जाने में ही हमें अपनी मंज़िल मिलेगी। फिर व्यर्थ की खींचतान , सोचा विचारी का अर्थ ही क्या है ? भेड़वत चरैवेति चरैवेति,नेति नेति। बनी रहें ये मधुशालाएं, बने रहें पीने वाले।।
— डॉ. भगवत स्वरूप ‘शुभम’