रश्मियों का राग दरबारी
नोटबंदी का दुःखदाई माहौल चल रहा था. जिनके पास खरीदारी के लिए वाजिब धन का अभाव था, वे तो नोट बदलवाने की लाइन में लगकर भी विवशता से ही एक-दूसरे को देखकर सांत्वना देने के लिए मुस्कुरा रहे थे, पर जिनके पास पुराने नोटों का अंबार था, उनकी विवशता तो देखते ही बनती थी. कितनी मुश्किलों से क्या-क्या जुगाड़ लगाकर उन्होंने धन जमा किया था. अब फिर जुगाड़ लगाकर बदलवाए नए नोटों को न निगलते बनता था, न उगलते.
सेठ दीनानाथ कल कई धन के कई बोरे बैंक के लॉकरों में रखकर आए थे. सुना है, बैंक के खुफिया कैमरे में छायांकित उनकी छवि आई.टी. विभाग के हत्थे चढ़ गई है. इसलिए वे अपने घर के एक खुफिया कमरे के घुप्प अंधेरे में कैद हुए बैठे हैं.
दो दिन ऐसे ही बीत गए. इस बीच उनका मन-मंथन चल रहा था, पर रोशनी की कोई किरण दिखाई नहीं दे रही थी.
अचानक दरवाज़े के ताले के सुराख़ से सूर्य-रश्मियों का एक समूह चमकता हुआ दिखाई दिया. सेठ को लगा मानो वे रश्मियों का राग दरबारी सुन रहे हों. उन रश्मियों के राग में न जाने क्या जादू था, कि जुगाड़ लगाकर जमा किए गए धन से उनका अनुराग खिसकने लगा.
उनको लगा, आम जनता की लाइन हमारे जैसे जुगाड़ुओं के कारण ही निरंतर लंबी होती जा रही है. खुश तो हम फिर भी नहीं हैं, सरकार भी नाहक परेशान हो रही है. क्यों न बिना कर वाली काली कमाई को घोषित करके, उस पर कर देकर सफेद किया जाए. कुछ रकम भी हाथ लगेगी और संतोष भी.
वे खुफिया कमरे से निकल बैंक को चल दिए.
नोटबंदी की पीड़ा को दर्शाती इस लघुकथा को लघुकथा मंच पर बहुत सराहा गया था, इसलिए हमने अपने लघुकथा संग्रह- 2 का नाम ही ‘रश्मियों का राग दरबारी’ रखा. इस कथा को नोटबंदी के समय ही लिखा गया था, कथा आपके समक्ष है.