पराली द्वारा प्रदूषण का शोर बनाम इसका वास्तविक समाधान
हमारे देश में हर साल अक्टूबर के महिने में बड़े पूँजीपतियों और कार लॉबी द्वारा अधिकतर पोषित पालतू दृश्य और प्रिंट मिडिया द्वारा हरियाणा और पंजाब में गरीब किसानों द्वारा पराली जलाने से प्रदूषण का हौवा खड़ा किया जाता है, जैसे हर साल वर्षा के दिनों में बाढ़ का, गरमी के दिनों में सूखे और पेय जल की, जाड़े में ठंड से ठिठुर कर मरने वालों के लिए रैनबसेरों की, भूख से भात-भात करते-करते मरने पर सभी की भोजन की व्यवस्था की और अस्पतालों में ऑक्सीजन और दवा के अभाव में हजारों बच्चों के मरने पर ऑक्सीजन और दवाइयों की आपूर्ति पर कमीशनखोरों आदि-आदि पर खूब लेख, सम्पादकीय लिखे जाते हैं, टेलिविजन में चार-छः दिन गर्मा-गर्म बहसें होतीं दिखतीं हैं, फिर सब कुछ बिल्कुल शान्त और देश और उसके सिस्टम की गाड़ी अपने उसी पुराने सामान्य और मंथर गति से फिर चलने लगती है। यही हमारी, हमारे समाज की और हमारे देश की फितरत है। वास्तव में हम, हमारा समाज और हमारी सरकारों के कर्णधार इन समस्याओं के चिरस्थाई समाधान को करना चाहते ही नहीं हैं। ऐसी समस्याओं का सामना दुनिया के अन्यान्य देश भी करते हैं, परन्तु वहाँ इन समस्याओं के समाधान वैज्ञानिक तरीकों से सोच-समझकर ईमानदारी से कर दिए जाते हैं ताकि वे समस्याएं अगले साल दोबारा फिर उठकर पुनः खड़ी ही नहीं होतीं। हमारे यहाँ हर साल बाढ़ राहत कोष, सूखा राहत कोष और ठंड से बचाव हेतु रैनबसेरों और कोयला जलाने में करोड़ों रूपये खर्च इसलिए किया जाता है, ताकि इसमें प्रतिवर्ष कमीशन खोरों को कमीशन मिलता रहे।
यही हाल प्रदूषण का है चाहे वायु प्रदूषण हो, ध्वनि प्रदूषण हो, नदी प्रदूषण हो, भूगर्भीय जल प्रदूषण हो, सभी के होने के कारणों का सभी को ठीक से मालूम है, परन्तु उसका स्थाई समाधान नहीं किया जाता है, केवल शोरगुल मचा कर मामले को रफा-दफा किया जाता है, उसकी लीपापोती की जाती है, जैसे कुछ सालों पूर्व मैगी में सीसे जैसी विषाक्त पदार्थ मिले होने के आरोप में उसे बन्द कर दिया गया, परन्तु कुछ ही दिनों बाद उस कम्पनी से सम्बन्धित विभाग के अफसरों ने मोटी रिश्वत खाकर उसे फिर यथावत चालू कर दिया, वह कम्पनी अपना पुराना माल भी बेची जिसमें सीसा मिले होने का आरोप था, अभी आस्ट्रेलिया की मैकक्वेरी विश्वविद्यालय के शोध में यह स्पष्ट हुआ है कि मैगी में सीसे की मात्रा अभी भी खतरनाक स्तर से ज्यादे है, जो भारत में धड़ल्ले से बेची जा रही है। इससे प्रश्न यह उठ खड़ा होता है कि भारत की भ्रष्ट नियामक संस्थाएं घूस खाकर मिलावटी और बिषाक्त खाद्य पदार्थों को बनाने वाली कंपनियों को क्लीन चिट दे देतीं हैं ! यहाँ हर साल दीपावली के मौके पर हजारों-लाखों टन नकली दूध, घी, मावा आदि पकड़े जाने का शोर मचाया जाता है, क्या कभी यह भी समाचार मिलता है कि आम जनता के स्वास्थ्य के साथ इतना ‘गंभीर और संगीन अपराध और कुकृत्य ‘करने वाले इन ‘अपराधियों ‘को मात्र ‘एक दिन की भी प्रतीकात्मक जेल ‘ हुई हो!
इसी प्रकार वास्तविकता और कटु सच्चाई यह है कि दिल्ली सहित इस देश में 72 प्रतिशत तक वायु प्रदूषण संगठित कार लॉबी द्वारा निर्मित डीजल और पेट्रोल से चलने वाली छोटी-बड़ी गाड़ियों से होती है, 20 प्रतिशत कल-कारखानों से निकलने वाले धुँए से और 8 प्रतिशत प्रदूषण किसानों द्वारा पराली जलाने सहित अन्य कारणों से होती है, लेकिन चूँकि कार निर्माता लॉबी कारखानों के मालिक बहुत ताकतवर और संगठित हैं और वे सत्तारूढ़ सरकारों को मोटा चंदा देते हैं, सभी मिडिया इनकी जेब में है, इसलिए प्रदूषण फैलाने का सारा दोष असंगठित और कमजोर किसानों के पराली जलाने और गाँव के लोगों द्वारा उपले से रसोई बनाने से उठते धुँएं पर मढ़ दिया जाता है। प्रश्न ये भी है कि पराली और उपले तो हजारों सालों से ईंधन के रूप में जलाए जाते रहे हैं, तो पहले आज जैसे ये प्रदूषण की समस्या तो कभी नहीं होती थी तो अब वायु प्रदूषण दोष किसानों और गाँव वालों पर क्यों मढ़ा जा रहा है ?
वास्तविक समाधान तो ये होता कि कारों के निर्माण और प्रयोग को जैसे भी हो सरकारें धीरे-धीरे कम करें, इनकी जगह सार्वजनिक वाहन जैसे विद्युत चालित बसें, ट्रामें, मेट्रो, ट्रेनें, बैटरी चालित रिक्शा, सायिकिलें, घोड़े से चलने वाले आधुनिक परिष्कृत इक्के और तांगे का यूरोप के प्रगतिशील देशों जैसे अधिकाधिक सभी लोग प्रयोग करें। यूरोप के देशों में 90 प्रतिशत तक लोग सार्वजनिक परिवहन का प्रयोग करते हैं, या सायिकिल से ऑफिस, स्कूल-कॉलेज और बाजार निःसंकोच जाते हैं। इसके अतिरिक्त चीन जैसे देश की तरह अपने किसानों को धान का समर्थनमूल्य प्रति क्वींटल 5500 रूपये किसानों को देने की व्यवस्था हो, न कि 1450 रूपये प्रति क्वींटल, जिससे किसान स्वयं पराली को न जलाकर खाद बनायें, नहीं तो सरकार खुद किसानों की पराली अपने खर्च पर निस्तारित करे।
इन उपायों से प्रदूषण की समस्या से स्थाई रूप से मुक्ति मिलने में मदद मिलेगी और उसका चिरस्थाई समाधान भी हो जायेगा और यह समस्या सदा के लिए समाप्त हो जायेगी। इसके अतिरिक्त भयंकर प्रदूषण से होने वाले रोगों और उसमें खर्च होने वाले अमूल्य अरबों-खरबों रूपयों को भी बचाया जा सकता है। इसके अतिरिक्त प्रतिवर्ष प्रदूषण से कालकलवित होते लाखों नवजात शिशुओं, महिलाओं और लोगों के अमूल्य जीवन को भी बचाया जा सकता है।
— निर्मल कुमार शर्मा