स्वप्न दीप
दीप जला एक सपने में, वह सपना चंचल भोला था
मृग नयनों ने जब पाला तो, मृदु अधरों ने भी बोला था ।
पंख ना तो तुम इसको रश्मि ,इसे अम्बर तक अभी जाना हैं
फिर संध्या हुई साॅ॑झ की रंगमयी, साॅ॑झ हुई सन्ध्या की करुणा ।
बना व्योम की पावन बेला , जुगनू से राह सजाना था
उड़ते खग– मृग पुलकित होते, अपनी सुध– बुध में थे डूबे ।
स्नेह बना अम्बर से जब तो , तारों ने भी स्वीकार किया
ये थी मेरी स्वप्न व्यथा जिसने उज्जवल अक्षर जीवन पाया ।
बिखरी थीं जो स्मृती क्षार– क्षार, तब एक दीपक ने मुझको
अजर –अमर बनाया , फिर स्नेह– स्नेह हमने पहचाना !
लिया संकल्प अब लौं बन जाना हैं, दीप जला एक सपने में।।”
— रेशमा त्रिपाठी