ग़ज़ल
मज़े के साथ ज़हर घूँट-घूँट पीने का
कि अंदाज़ मुख्तलिफ है अपने जीने का
है नमकीन लहज़ा शहर के सब लोगों का
तू ही बता दिखाऊँ ज़ख़्म किसे सीने का
नफरत – ओ – इश्क दोनों अधूरे ही रहे
हुआ न काम हमसे एक भी करीने का
बचा लेता मुझे भी नाखुदा औरों की तरह
न सही दोस्त मुसाफिर तो था सफीने का
तमाम उम्र भटकता रहा कशकोल लिए
खबर न थी कि मैं मालिक हूँ इक दफीने का
— भरत मल्होत्रा