एकता की चाहत
राष्ट्रीय एकता दिवस पर विशेष
आज एकता की चाहत ने, फिर हमको ललकारा है,
एक साथ सब मिलकर बोलो, भारत देश हमारा है.
याद करो ऐ भारतवासी, भारत था जब जगद्गुरु,
भारत की महिमा गाने को, जन्मे थे पोरस व कुरु.
हिंसा का तब नाम नहीं था, छुआछूत का ज्ञान नहीं,
जाति-पाति के भेदभाव और धर्मयुद्ध का भान नहीं.
भाषा को लेकर झगड़े का, सुना किसी ने नाम नहीं,
जीवन में सुख-चैन-अमन था, तनातनी का काम नहीं.
फिर छाए संकट के बादल, मुगलों ने हैरान किया,
सदियों तक भारत पर अपने, जुल्म का तंबू तान दिया.
अंग्रेजों ने उन्हें छकाया, राज हमारा ले बैठे,
आए थे व्यापारी बनकर, राजा बनकर थे ऐंठे.
सालों-साल गुलामी से हम, आजादी का रस भूले,
जैसे थे वैसे ही रहकर, राजा बनकर थे ऐंठे.
फिर गांधी का उदय हुआ, फिर तिलक-गोखले जाग पड़े,
नेहरु-शास्त्री निकल पड़े, फिर भारतवासी उमड़ पड़े.
सत्य-अहिंसा का संबल ले, भारत को आजाद किया,
आजादी की सांस में हमने, ‘हम सब एक’ का नाद किया.
देश हमारा अपना था अब, हम ही राजा थे अपने,
अपना ही संविधान हमारा, और हमारे ही सपने.
सपनों को साकार बनाने, का हमने ऐलान किया,
नेक इरादे लेकर हमने, ज्ञान-विज्ञान को मान दिया.
तभी अचानक भेदभाव की, लहर उठी इस भारत में,
शांति-दूत जो कहलाता था, उस चाचा के भारत में.
असम जल उठा एक ओर तो, एक ओर पंजाब खड़ा,
एक समस्या सुलझ न पाई, झंझट कोई उलझ पड़ा.
हलचल के इस नए दौर में, कहां-कहां पर हम जूझें,
बाहर के खतरों को देखें या भीतर की कल पूछें?
आज अगर हम एक साथ हो, संग नहीं चल पाएंगे,
आजादी को खतरा होगा, हम कैसे बच पाएंगे?
इसीलिए सब मिलकर बोलो, भारत देश हमारा है,
आज एकता की चाहत ने फिर हमको ललकारा है.
आज भारत की एकता के सूत्रधार कहे जाने वाले और भारत के ‘लौह-पुरुष’ सरदार वल्लभभाई पटेल की जयंती है. सरदार वल्लभभाई पटेल की जयंती को राष्ट्रीय एकता दिवस के रूप में मनाया जा रहा है. इस अवसर पर प्रस्तुत है यह कविता- ‘एकता की चाहत’. 1984 में लिखी गई यह कविता संभवतः आज भी उतनी ही प्रासंगिक है, जितनी तब थी. इस कविता ने अनेक कवि सम्मेलनों और छात्र-छात्राओं की कविता-प्रतियोगिताओं में भी धूम मचाई थी.