मनुष्य की जीवात्मा चेतन, अल्पज्ञ, अनादि, अजर व अमर सत्ता है
ओ३म्
मनुष्य मननशील प्राणी को कहते हैं। परमात्मा ने इस संसार एवं इसके सभी प्राणियों को उत्पन्न किया है जिनमें मनुष्य भी एक प्राणी है। मनुष्य की अनेक विशेषतायें हैं जो अन्य प्राणियों में नहीं हैं। अन्य प्राणियों में भी अनेक विशेषतायें हैं जो मनुष्यों में नहीं है। यह सभी प्राणी परमात्मा से जन्म पाते और सुख व दुःख का फल भोग करने के बाद मृत्यु को प्राप्त हो जाते हैं। वेद तथा ऋषियों के ग्रन्थों के अध्ययन सहित विचार व चिन्तन-मनन करने पर ज्ञात होता है कि सभी प्राणियों में एक चेतन जीवात्मा होता है। यह जीवात्मा चेतन, अल्पज्ञ, अनादि, नित्य, ससीम, अजर, अमर, अविनाशी, जन्म-मरण-धर्मा, शुभाशुभ कर्मों का कर्ता और उनके फलों का भोगता है। सभी जीवात्मायें अनादि काल से जन्म-मरण के चक्र में बंधी हुई हैं। यह क्रम कभी बन्द नहीं होगा। हां, कुछ जीवात्मायें अपने वेद विहित कर्मों का पालन करते हुए मोक्ष को प्राप्त हो सकती हैं व होती जाती हैं और मोक्ष की अवधि लगभग 31 नील वर्षों तक मोक्ष का आनन्द भोग कर पुनः जन्म लेती हैं व जन्म-मृत्यृ के चक्र में बन्ध जाती हैं। हमने जो यह पंक्तियां लिखी हैं वह ऋषि दयानन्द जी ने वेद एवं वैदिक साहित्य के आधार तथा अपनी ऊहा एवं चिन्तन-मनन के आधार पर सत्यासत्य का विवेचन कर अपने ग्रन्थों में प्रदान की हैं। हम स्वयं भी उनकी मान्यताओं की अपने ज्ञान व अध्ययन के आधार पर परीक्षा कर पुष्टि कर सकते हैं और सत्य का ग्रहण और असत्य का परित्याग कर सकते हैं।
आत्मा को अनादि इस लिये कहा जाता है क्योंकि यह उत्पन्न धर्मा नहीं है। यह सदा से है और सदा रहेगी। इसका कभी नाश नहीं होगा। नाश उन पदार्थों का ही होता है जो पदार्थ उत्पन्न धर्मा होते हैं। संसार में ईश्वर, जीव व प्रकृति अनादि व नित्य पदार्थ हैं। यह तीन सत्तायें वा पदार्थ उत्पन्न धर्मा नहीं है। यही तीनों पदार्थ संसार के सभी पदार्थों व सृष्टि रचना के कारण होते हैं। ईश्वर सदा अपने सत्य स्वरूप में, जो कि सच्चिदानन्द, निराकार, सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान, न्यायकारी, अनादि, नित्य व अविनाशी है, विद्यमान रहता है। जीवात्मा में भी कोई विकार नहीं होता और यह सदैव अपरिणामी बनी रहती है। प्रकृति ही एक ऐसी सत्ता, तत्व व पदार्थ है जो त्रिगुणात्मक अर्थात् सत्, रज तथा तम गुणों वाली है। इसी में विकार होकर इस सृष्टि का निर्माण ईश्वर करता है। ईश्वर द्वारा सृष्टि का निर्माण किये जाने व उत्पन्न पदार्थों में सूर्य, पृथिवी, चन्द्र आदि लोक-लोकान्तर सहित पृथिवी पर उत्पन्न सभी अपौरूषेय पदार्थ अग्नि, वायु, जल, आकाश, वनस्पतियां, अन्न, ओषधियां, सभी मनुष्यादि प्राणी सम्मिलित हैं। ईश्वर प्रकृति से सृष्टि की रचना व सृष्टि की अवधि पूरी होने पर इसकी प्रलय अनादि काल से करता आ रहा है और अनन्त काल तक करता रहेगा। यही इस संसार का वास्तविक वा यथार्थ स्वरूप है। यह क्रम कभी भंग न होने वाला है। इसे सुधार की आवश्यकता नहीं है। यह सृष्टि व सृष्टि–चक्र अपनी रचना की श्रेष्ठ अवस्था है। सुधार तब होता है जहां कोई त्रुटि या न्यूनता होती है। परमात्मा के बनाये हमारे सूर्य, पृथिवी आदि सभी पदार्थों में कहीं कोई न्यूनता नहीं है अतः सुधार की आवश्यकता भी नहीं है। बुद्धि व विवेक के आधार पर जीवात्मा भी जन्म व मरण के बन्धनों में बंधा हुआ है और हमेशा बन्धा रहेगा। इसे दुःखों की निवृति के लिये ईश्वर व वेद तथा वेद विहित कर्मों का ही आश्रम लेना होगा। इसका भी सुधार सम्भव नहीं है। जो भी मनुष्य संसार में हैं, यदि वह वेद-विहित कर्म नहीं करेंगे तो कर्म के बन्धनों के दुःख व सुख रूपी फलों में बन्धे रहेंगे और उसी के आधार पर इनको मनुष्य, पशु, पक्षी आदि जन्म मिलते रहेंगे।
परमात्मा ने हमें इस जन्म में मनुष्य जन्म देकर हमें ईश्वर, जीवात्मा और प्रकृति वा सृष्टि को जानने व पहचानने का अवसर प्रदान किया है। हमें विद्वानों व वेदों के आधार पर सत्य सिद्धान्तों व मान्यताओं की पुष्टि कर सत्य का आचरण करते हुए शुभ कर्मों का आचरण करना है जिनका परिणाम वा फल सुख होता है। हमें शुभ कर्मों को करते हुए आसक्ति से रहित होकर ईश्वरोपासना, अग्निहोत्र यज्ञ, पितृयज्ञ सहित परोपकार एवं दान के कार्मों को करना है। ईश्वरोपासना में योगाभ्यास भी सम्मिलित होता है। इससे मनुष्य समाधि लाभ को प्राप्त होकर ईश्वर के गुणों को आत्मसात करने का प्रयत्न करता है और उनको प्राप्त कर सामान्य स्थिति से असाधारण स्थिति को प्राप्त हो जाता है। समाधि अवस्था ही मोक्ष का द्वार होती है। मोक्ष की प्राप्ति होने पर बन्धनों की निवृति होकर जन्म मरण से रहित 31 नील वर्षों से अधिक अवधि तक ईश्वर के सान्निध्य का आनन्द जीवात्मा भोगना होता है। सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ के नवम समुल्लास में मोक्ष का विस्तृत वर्णन प्राप्त होता है। इसे सभी बन्धुओं को वहां देखना चाहिये। मोक्ष की यह स्थिति विरले मनुष्यों को ही प्राप्त होती है। हम आशा करते हैं कि यह स्थिति ऋषि दयानन्द और उनसे पूर्व महाभारतकालीन व उससे भी पूर्व के ऋषि महर्षियों सहित निष्काम योगियों को प्राप्त हुई थी। वेदाध्ययन तथा योगाभ्यास के अतिरिक्त किसी मत व सम्प्रदाय के आचार्य में यह सामाथ्र्य न है तथा न कभी रहा है कि वह अपने किसी अनुयायी व स्वयं को मुक्ति की अवस्था प्राप्त करा सके। जहां तक स्वर्ग की प्राप्ति की बात है, स्वर्ग इस जन्म में अधिक शुभ कर्मों को करके पुनर्जन्म में प्राप्त होने वाली मनुष्य योनि एवं उसमें मिलने वाली सुखद परिस्थितियों को कहते हैं। स्वर्ग प्राप्ति के लिये भी हमें निष्काम श्रेष्ठ कर्मों को करना होगा तभी हम पुनर्जन्म में सुख वा स्वर्ग प्राप्त कर सकते हैं। जो व्यक्ति इस मनुष्य जन्म में मांसाहार व सामिष भोजन करते हैं, छल-कपट युक्त जीवन व्यतीत करते हैं, वेद ज्ञान व आचरण से रहित हैं, उनको परजन्म वा पुनर्जन्म में पूर्ण सुख तथा स्वर्ग प्राप्त नहीं हो सकता, भले ही वह किसी मत के संस्थापक, आचार्य तथा कथावाचक ही क्यों न हों। उन्हें मोक्ष मिलने का तो प्रश्न ही नहीं होता। ऐसा होना न वर्तमान में सम्भव है, न कभी भूतकाल में ऐसा हुआ है और न भविष्य में ही ऐसा हो सकता है।
वर्तमान समय में मनुष्य ईश्वर, जीवात्मा आदि के ज्ञान से प्रायः रहित है। ऐसा होना मनुष्य का अपने जीवन के उद्देश्य से दूर जाना है। मनुष्य जन्म का उद्देश्य ही ईश्वर व जीवात्मा सहित इस संसार को यथार्थ रूप में जानना व विवेक पूर्वक वेदोक्त कर्मों को करना है। मनुष्य चाहे अच्छे व बुरे कर्मों से कितना धन कमा लें, कितने ही बंगले व सुख के साधन इकट्ठे कर ले, रात दिन हवाई जहाज की यात्रायें करता रहे, देश-देशान्तर में घूमता रहे, किसी पार्टी का अध्यक्ष या मत्री व राज्याध्यक्ष बन जाये परन्तु उसे मृत्यु के बाद अपने इस जन्म के धन व साधनों से वह सुख प्राप्त नहीं हो सकता कि जो वेदाचरण करते हुए ईश्वरोपासना, अग्निहोत्र-यज्ञ, माता-पिता-आचार्यों की सेवा तथा परोपकार व दान करने वाले सत्पुरुषों को प्राप्त होता है। सुख का आधार धर्म और सत्कर्म ही हुआ करते हैं। ज्ञान से बढ़कर सुखकारक कोई वस्तु व पदार्थ नहीं है। ज्ञान में असीम सुख होता है। धन में सुख होता है परन्तु यह सुख ज्ञान की दृष्टि से कहीं अधिक निम्न श्रेणी का होता है। ज्ञान व उसके अनुसार आचरण से मनुष्य परमगति मोक्ष को प्राप्त हो सकता है परन्तु धन कमा कर परम गति नहीं मिलती। हां, यदि धन को सुपात्रों को दान दिया जाता है तो इससे लाभ अवश्य होता है परन्तु जन्म मरण से मुक्ति के लिये तो समाधिस्थ अवस्था में ईश्वर का साक्षात्कार करना आवश्यक होता है। दर्शन ग्रन्थों का अध्ययन कर विद्वानों से प्रवचन सुनकर इस विषय को समझा जा सकता है। आत्मा को उठाना व गिराना मनुष्य के अपने हाथ में होता है। परमात्मा ने मनुष्य को कर्म करने में स्वतन्त्र बनाया है। हम शुभ कर्म वा अशुभ कर्म करने इन दोनों कामों में स्वतन्त्र हैं। इनमें से एक को चुनना हमारे अपने अधिकार में हैं।
आत्मा के सत्य स्वरूप का वर्णन कराने वाले विद्वानों के कई उत्तम ग्रन्थ उपलब्ध हैं। पं0 राजवीर शास्त्री जी ने ‘‘दयानन्द–सन्देश” का सम्पादक रहते हुए ‘‘जीवात्मा ज्योति” नामक महत्वपूर्ण ग्रन्थ का सम्पादन किया था जिसमें सभी शास्त्रों के प्रमाणों व सन्दर्भों का संकलन विद्यमान है। यह ग्रन्थ पत्रिका के तीन अंकों में प्रकाशित हुआ था। इसे एक खण्ड में पुस्तक रूप में प्रकाशित किये जाने की महती आवश्यकता है। हमने इसके प्रकाशन के लिए गुरुकुल पौंधा की पत्रिका के सम्पादक जी से निवेदन किया है। पं0 राजवीर शास्त्री जी की हम पर अत्यन्त कृपा व स्नेह रहा है। स्वामी प्रणवानन्द सरव्वती जी तथा गुरुकुल पौंधा के आचार्य डा0 धनंजय जी से भी वह अत्यधिक स्नेह रखते थे। हम आशा करते हैं कि जीवात्म-ज्योति पुस्तक का ग्रन्थ का प्रकाशन शीघ्र हो सकेगा। श्री कर्मनारायण कपूर जी की ‘‘आत्मा की जीवनगाथा” भी आत्मा के स्वरूप पर एक महत्चवपूर्ण पुस्तक है जिसे रामलाल कपूर न्यास, रेवली-सोनीपत से मंगाया जा सकता है। आर्यसमाज के अनेक विद्वानों के प्रायः सभी ग्रन्थों में आत्मा के स्वरूप पर प्रकाश पड़ता है। स्वामी विद्यानन्द सरस्वती जी की ‘अनादि–तत्व–दर्शन’ भी आत्मा विषयक ज्ञान के लिये एक उत्तम कृति है। इस चर्चा को हम यहीं विराम देते हैं। ओ३म् शम्।
–मनमोहन कुमार आर्य