विलासिता की कर्मनाशा
जबरा मारे रोने भी न दे,
खोल नहीं सकते अपना मुँह,
गुनाह है बोलना सत्य,
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का कोई अर्थ नहीं ,
जिसकी लाठी उसकी भैंस।
संविधान मात्र पुस्तकालयीय सजावट के लिए,
दुनिया को दिखावट के लिए,
कितने पारदर्शी और दूध के धुले हैं हम,
अपनों के सपनों का शोषण अधिकम।
अपनी पीठ स्वयं ठोंकना,
बुराई का दायित्व पड़ौसी पर थोपना,
जन -जन के पथ में काँटे रोपना,
अखबारों टीवी में अपनी वाहवाही भौंकना,
कि कितने बहादुर हैं हम।
बीज जातिवाद के बोना,
उनके लिए पीतल अपने लिए सोना,
नहीं ही सुनना कोई रोना -धोना,
जन -जन को खाई खोदना,
सियासत में जातिवाद की
विषाक्त शकरकन्द रोपना,
खण्ड -खण्ड करना भारतमाता,
चूल्हे सबके अलग -अलग सुलगाता,
खुल ही गया देश के पतन का खाता।
तानाशाही है कौन सी चिड़िया,
बाज की तरह निरीह गौरैया को
झपट कर खाती,
जल्लादों की होती नही जाति,
निरपराधों को फाँसी पर चढ़ाती,
विलासिता की कर्मनाशा में गोते लगाती।
न आशा है न विश्वास,
घुट रही निरंतर निम्न मध्य वर्ग की साँस,
सुखी है मात्र वर्ग उच्च,
जिनके के लिए आप और हम कीड़े तुच्छ,
चुटकियों में मसल देते हैं,
ढूँढते हैं अमावस्या की रात में पारदर्शिता,
अंधभक्तों की चल रही है
आगे -आगे मार्गदर्शिका ।
दीवार करते खड़ी भेदभाव की,
मरहम भी नहीं लगती है किसी घाव की,
कीमत नहीं कोई सद्भाव की।
वैतरणी बह रही है सर्वत्र अभाव की,
यदि किसी ने भी त्राहि -त्राहि की
तो जुबां बन्द होगी ही उसके शबाव की।
मरघटी शांति कायम करते ,
भले ही आमजन भूख प्यास से मरते,
चील -बाजों के झपट्टों में
कबूतर फाख्ता मरते,
मगर वे तनाशाही में
तृण भर भी नहीं शरमाते डरते,
असहाय ग़रीब तृण भर नहीं उबरते,
‘शुभम ‘ की प्रत्याशा में
उनके घर -बार ही उजड़ते ,
लॉलीपॉप के सपनों में दिन पर दिन गुजरते,
किन्तु तनाशाह कदापि शरमाते न सुधरते,
और विलसिता की कर्मनाशा बह रही है
निरन्तर बहती जा रही है।
— डॉ. भगवत स्वरूप ‘शुभम’