ग़ज़ल
खुद मुझको ही लुभाती रही रात भर
ज़िंदगी मुझे… सिखाती रही रात भर
अहमियत समझाने को मिठास की
घूंट कड़वा भी पिलाती रही रात भर
दिन बीत गया सारा खारे मिजाज़ में
नग्मे खुशी के…..सुनाती रही रात भर
अंधेरों की गिरफ़्त में होता है दिन भी
रोशनी झिलमिलाती….. रही रात भर
जी तो ली हमने…. ज़िंदगी बमुश्किल
बेदर्द कयामत…. सताती रही रात भर
मंज़िल की राह पर बढ़े कदम कदम
दूरियाँ सफर की नापती रही रात भर
घने बादलों की गिरफ़्त में गया दिन
उम्मीद की चमक जगाती रही रात भर
उम्र सांसों की दहलीज़ तलक ही मणि
दशहत गश्त…… लगाती रही रात भर
— मनीष मिश्रा मणि