पिता का वृहत हस्त
सारा ब्रह्मांड समाया है
पिता श्री के हस्त में
कितना सार अवलंबित है
विधिस्मंत इस तथ्य में।
जिसने भी कहा है
या तो उसने इस
प्रत्यक्ष ज्ञान को जिया
या मात्र बोध प्राप्त करने का
उपाय भर किया।
अन्तःकरण पर स्थापित
चिंतन का अतिरेक
पिता विस्तार है
ब्रह्म का,
समझ गई यह भेद।
पिता श्री मेरे आकाश
जिनमें प्रमुदित हैं
अस्तित्व के राग
और आशाओं के
अलौकिक नाद
उम्मीदों के नभचर
करते कलरव
उनके उत्संग में,
संचित रहते
अनुराग और विराग
उनके अवलंब में।
बहुत दुष्कर होता है
व्यथा के क्षण में
अबद्ध और निरंकुश
जीवन का क्रीडोद्यान
उसी क्षण पिता श्री का
वृहत हस्त बनता
शक्ति का प्रश्वास।
— अनुजीत इकबाल