गीत – पायल की रुनझुन
पायल की रुनझुन की अपनी बोली है।
कानों में मधुरस की प्याली घोली है।।
कोयल फिर से बोल उठा है बागों में।
गान कर रहा तन मन मोहक रागों में।।
भौंरों के हित सुमनों ने झोली खोली है।
पायल की रुनझुन की अपनी बोली है।।
प्रकृति पुरुष के आकर्षण में बंध जाती।
फैला दोनों बाँह अंक में मदमाती।।
गालों पर मल रही अरुणता रोली है।
पायल की रुनझुन की अपनी बोली है।।
सरिता सागर से मिलने को जाती है।
सजनी सजकर साजन से इतराती है।।
ये न समझ लेना ये सजनी भोली है।
पायल की रुनझुन की अपनी बोली है।।
नाच उठे बागों में मोर शोर करते।
डाली-डाली पर आम्र- बौर मौर धरते।।
किसलय कलियों ने चोली खोली है।
पायल की रुनझुन की अपनी बोली है।।
देह – देह को चाह रही मौनी भाषा।
नर – नारी के मन की गहरी परिभाषा।।
विनत नयन युग नज़रें कैसी डोली हैं।
पायल की रुनझुन की अपनी बोली है।।
— डॉ. भगवत स्वरूप ‘शुभम’