हक़ीकत
आजकल हक़ीकत
ख्वाबों से निकलकर,
पूछती कहाँ है…?
किस ओर जा रहे हो,
और जाना कहाँ है…?
हर शक्स
परेशान है यहाँ
जिये कहाँ थे,
और जीना कहाँ है..?
समय का आवरण
नहीं देर करता है।
उसे फर्क नहीं,
आपने क्या खोया,
और क्या पाया…?
पल-पल
घिसती उम्र
सुख दुख से
अलग नहीं
एक ओर,
बाँहें फैलाकर
सपने खड़े हैं
तो दूसरी ओर
पैर खीचती
जिम्मेंदारियाँ
रोज
साँस बेचकर
बच्चों के,
होठों हँसी
खरीदनें को
बेकरार रहना
समय की धूप में
खुद के पकने का
इन्तज़ार करना
क्या यही जिन्दगी है..?
और आखिर
वो दिन भी आता है
जब अपने ही
अपने कन्धों पर
लिटाकर
छोड़ आते हैं
मिट्टी को,
मिट्टी में
मिल जाने के लिये
बस यही सोच
रह जाती है
क्या करना था,
और क्या कर पाया है?
………मानस